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Showing posts from March, 2021

338, अन्तर्बहिः स्वं

अन्तर्बहिः स्वं स्थिरजङ्गमेषु  ज्ञात्वाऽऽत्मनाधारतया विलोक्य। त्यक्ताखिलोपाधिरखण्डरूपः पूर्णात्मना यः स्थित एष मुक्तः।। ३३८ -- अन्तःबहिः स्वं स्थिर-जङ्गमेषु  ज्ञात्वा आत्मना आधारतया विलोक्य।  त्यक्त-अखिल-उपाधिः-अखण्डरूपः  पूर्ण-आत्मना यः स्थितः एषः मुक्तः ।। -- अपने आपको भीतर बाहर, चर-अचर, भूतमात्र में विद्यमान एकमात्र अधिष्ठानरूपी अखण्ड आत्मा की तरह देखते हुए, समस्त उपाधियों को त्यागकर, जो पुरुष पूर्ण-आत्मा की तरह स्थित है वह यह पुरुष मुक्त है।  -- One who looks oneself as the only Self that is present in all moving and unmoving, sentient and insentient objects without distinction and as the support and substratum of them, One who relinquishing all adjuncts, ever abides there, is indeed free (Realized). --

389, अन्तः स्वयं चापि

अन्तः स्वयं चापि बहिः स्वयं च  स्वयं पुरस्तात् स्वयमेव पश्चात्।  स्वयं ह्यवीच्यां स्वयमप्युदीच्यां  तथोपरिष्टात्स्वयमप्यधस्तात् ।। ३८९ -- अन्तः स्वयं च अपि बहिः स्वयं च स्वयं पुरस्तात् स्वयं एव पश्चात्।  स्वयं ही अवीच्यां स्वयं अपि उदीच्यां तथा-उपरिष्टात् स्वयं अपि अधस्तात्।।  -- आत्मा अपने ही अन्तर में है, और आत्मा ही बाहर भी है, आत्मा अपने समक्ष है, और आत्मा अपने पृष्ठ की ओर है, आत्मा दक्षिण की दिशा में और आत्मा उत्तर की दिशा में है। आत्मा ऊपर की दिशा में तथा आत्मा नीचे की दिशा में है।  -- The Atman ( Self) is there within our heart,  He is alone without as well, He is before (manifest) us.  He is behind us as well. He is in the south. He is as well in the north. He is there above, and  He is as well there, beneath. --

274, अन्तःश्रिता

अन्तःश्रितानन्तदुरन्तवासना- धूलिविलिप्ता परमात्मवासना।  प्रज्ञातिसंघर्षणतो विशुद्धा प्रतीयते चन्दनगन्धवत् स्फुटम्।। २७४ -- अन्तःश्रिता अनन्त-दुरन्त-वासना- धूलि-विलिप्ता परमात्म-वासना  ।  प्रज्ञातिसंघर्षणतः विशुद्धा  प्रतीयते चन्दनगन्धवत् स्फुटम्।।  -- हृदयान्तर में स्थित परमात्मा को प्राप्त करने की अभिलाषा मानों अनन्त दुरन्त धूलिलिप्त वासना से आच्छादित होती है। इस स्थिति में परमात्मा को जानने (प्रज्ञाति / प्रज्ञान) की उत्कंठा  अन्तःकरण में चन्दन की सुगंध जैसी प्रतीत होती है । -- The urge to see God remains covered, hidden under the dust of endless past impressions in the mind of the seeker. Still, when this urge becomes strong enough, feels like the fragrance of sandal that permeats and purifies his mind. --

282, अनादानविसर्गाभ्यां

अनादानविसर्गाभ्यामीषन्नास्ति क्रिया मुनेः।  तदेकनिष्ठया नित्यं स्वाध्यासापनयं कुरु ।। २८२ -- अनादान-विसर्गाभ्यां ईषत् नास्ति क्रिया मुनेः।  तत् एकनिष्ठया नित्यं स्व-अध्यास-अपनयं  कुरु ।। -- मुनि न तो ग्रहण करता है, न त्याग करता है । चूँकि त्याग या ग्रहण ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों / मन आदि का कार्य है, और मुनि कर्तृत्व-भाव से रहित होने से किसी भी कार्य का कर्ता, भोक्ता आदि नहीं होता। इस प्रकार से एकनिष्ठ होकर सदैव अध्यासमात्र का निरसन करो। -- The sage neither accepts nor rejects and has nothing to do with the actions performed by the senses and sense organs or organs of action. Prompted by this and keeping this in mind, always remove all identification with all those actions whether performed by mind or by the  physical organs. --

103, अन्तःकरणमेतेषु

अन्तःकरणमेतेषु चक्षुरादिषु वर्ष्मणि । अहमित्याभिमानेन तिष्ठत्याभासतेजसा।। १०३ -- अन्तःकरणं एतेषु चक्षुः आदिषु वर्ष्मणि । अहं इति अभिमानेन तिष्ठति आभास-तेजसा।। --  अन्तःकरण / चेतना नामक मन-बुद्धि-चित्त-अहं-चतुष्टय, चक्षु इत्यादि इन्द्रियों / अंगों में अहंकार-रूपी अभिमान की तरह आभास-तेज-सहित व्याप्त रहता है।  -- The consciousness (mind) with the reflection of Cit (awareness) as ego permeats within the senses and is identified / associated with them. --

185, अनुव्रजत्

अनुव्रजच्चित्प्रतिबिम्बशक्तिर्विज्ञानसंघः प्रकृतेर्विकारः । ज्ञानक्रियावानहमित्यजस्रं देहेन्द्रियादिष्वभिमन्यते भृशम्।। १८५ -- अनुव्रजत् चित्-प्रतिबिम्ब-शक्तिः  विज्ञानसंघः प्रकृतेः विकारः।  ज्ञान-क्रियावान्-अहं इति अजस्रं  देह-इन्द्रिय-आदिषु अभिमन्यते भृशम्।। -- इस विज्ञानमय-कोष का, जो सदा ही,  प्रतिबिम्बित चित् शक्ति से युक्त प्रकृति के विकार से उत्पन्न हुआ विज्ञान-समुच्चय मात्र है, अनुसरण करता हुआ ज्ञान तथा क्रिया शक्ति से युक्त अहंकार अनादिकाल से, अपने आपको देह तथा इन्द्रियों में स्थित हुआ मान बैठता है। -- The knowledge-sheath which is a modification of prakriti (nature), endowed with the light of Cit (aware-ness), assumes itself the timeless ever-present ego, comprising of all Intellect and action, thus identifies itself with the body and senses .... --

83, अनुक्षणम्

अनुक्षणं यत्परिहृत्य कृत्यमनाद्यविद्याकृतबन्धमोक्षम् । देहः परार्थोऽयममुष्यपोषणे यः सज्जते स स्वमनेन हन्ति।। ८३ -- अनुक्षणं यत् परिहृत्य कृत्यं अनादि-विद्या-कृत-बन्ध-मोक्षम् । देहः परार्थः अयं अमुष्य पोषणे यः सज्जते सः स्वं अनशन हन्ति।। -- अनादि अविद्या से प्राप्त हुए बन्धन से अपनी आत्मा का मोक्ष कैसे हो, इस ओर ध्यान तक न देकर, जो मनुष्य क्षण प्रतिक्षण इस देह का ही पोषण करने में संलग्न रहता है, जिसका औरों के द्वारा ही उपयोग किया जाता है, वह इस प्रकार अपने आप की हत्या ही कर लेता है।  -- Leaving aside what is needed be done to free oneself from the beginingless ignorance, one who keeps caring moment to moment for and nourishing this body, which is of no use to him but is useful only for others, in a way thereby commits suicide only. --

469, अनिरूप्य स्वरूपं

अनिरूप्य स्वरूपं यन्मनोवाचामगोचरम् । एकमेवाद्वयं ब्रह्म नेह नानास्ति किञ्चन।। ४६९ -- अनिरूप्यं स्वरूपं यत् मनो-वाचां अगोचरम् । एकं एव अद्वयं ब्रह्म न इह नाना अस्ति किञ्चन।।  -- इन्द्रियों, मन तथा वाणी आदि से जिस एकमेव ब्रह्म के स्वरूप को बुद्धि में ग्रहण नहीं किया जा सकता, वह अद्वयमात्र है, यह  नानात्वरूपी भेद से रहित तथा अनिर्वचनीय है। -- The Reality (Brahman) is Indescribable, One,  Undifferentiated, Whole Truth, - devoid of distinctions,  incomprehensible for the senses, mind and intellect. -- --

200, अनादेरपि विध्वंसः

अनादेरपि विध्वंसः प्रागभावस्य विक्षितः । यद्बुद्ध्युपाधिसम्बन्धात् परिकल्पितमात्मनि।। २०० -- अनादेः अपि विध्वंसः प्राक्-अभावस्य वीक्षितः। यत् बुद्धि-उपाधि सम्बन्धात् परिकल्पितं आत्मनि।। -- जिस (अविद्या तथा उसके कार्य) का अस्तित्व ही नहीं है, उसका अभाव तो पहले भी था ही। किन्तु जिसे आत्मा में ही, बुद्धि में कल्पित कर उस सम्बन्ध रूपी उपाधि की तरह ग्रहण कर लिया गया। फिर अविद्या का निवारण होने पर यह प्रश्न किया गया कि इस अनादि अविद्या का नाश कैसे हो! इस प्रकार यह प्रश्न ही विसंगतिपूर्ण है।  -- Though this ignorance is described begining-less, is said to have an end. Since this ignorance didn't exist earlier as well, it is apparently only because of its acceptance in intellect and thereby in imagination, assuming it associated within the self. -- because of  its absence prior to destruction of this ignorance is seen,   

क्रमोपक्रम

A brief history. -- During 1995-1998, I translated this text into Hindi as a means to grasp the essence. So many years after I'm again trying to do the same.  This time I took a different approach. But for those who may find something useful in my this blog, I would like to suggest that the whole text should be read by dividing this into sections as under : Stanza 1-34, Stanza 35-40, Stanza 41, Stanza 48-49, Stanza 50-191, Stanza 192-193, Stanza 194-211, Stanza 212, Stanza 213-478,  Stanza 479-480, Stanza 481-519, Stanza 520, Stanza 520-575, and lastly : Stanza 576-580. -- This way the whole text could be taken in a form of a storyline. -- Though the way I am posting these stanzas here is according to my own reference and point of view only. --

198, अनादित्वमविद्यायाः

अनादित्वमविद्यायाः कार्यस्यापि तथेष्यते। उत्पन्नायां तु विद्यायामाविद्यकमनाद्यपि ।। १९८ -- अनादित्वं अविद्यायाः कार्यस्य अपि तथा इष्यते।  उत्पन्नायां तु विद्यायां आविद्यकं अनादि अपि।।  -- यद्यपि अविद्या और उसके कार्य को भी अनादि समझा जाता है, विद्या के उत्पन्न होते ही उस अविद्या तथा उसके कार्य का भी अंत हो जाता है। -- Though this ignorance, and the effect of this ignorance is described as beginingless, with the removal of this ignorance, its effect is also no more. -- Ignorance is beginingless, and this gives rise to "Time".  अक्षरात्संजायते कालो कालाद् व्यापकः उच्यते।  (शिव अथर्वशीर्ष)  व्यापको हि भगवान् रुद्रो, भोगायमानो यदा शेते।  Ending of ignorance is ending of "Time". In this "Timelessness" there is but  Self-Resplendent,  Self-effulgent,  awareness of "What Is". --

186, अनादिकालो

अनादिकालोऽयमहंस्वभावो  जीवः समस्तव्यवहारवोढा । करोति कर्माण्यपि पूर्ववासनः पुण्यान्यपुण्यानि च तत्फलानि।। १८६ -- अनादिकालः अयं अहं स्वभाव।  जीवः समस्तः व्यवहारवोढा।  करोति कर्माणि अपि पूर्व-वासनः  पुण्यानि अपुण्यानि च तत्फलानि।। -- अनादिकाल से अहं (आत्मा) का यही स्वभाव है कि अहं पूर्ववासनाओं से प्रेरित हुआ, अहंकार अर्थात् जीवभाव की तरह व्यक्त होकर, समस्त व्यवहार करता है, और पुण्य तथा अपुण्य का फल देने वाले कर्म करता रहता है। -- Timelessly, This is the very nature of the Self, that disguised as ego / individual self, it performs various kind of noble and evil deeds and experiences the fruits of such actions. --

275, अनात्मवासनाजालैः

अनात्मवासनाजालैस्तिरोभूतात्मवासना।  नित्यात्मनिष्ठया तेषां नाशे भाति स्वयं स्फुटम् ।। २७५-- अनात्म-वासना-जालैः तिरोभूता आत्मवासना । नित्य आत्मनिष्ठया तेषां नाशे भाति स्वयं स्फुटम्।।  -- अनात्म वस्तुओं की वासनाओं के जाल में जकड़े मन की आत्म-तत्व की प्राप्ति की अभिलाषा विलुप्त हो जाती है । उस आत्म-तत्व की प्राप्ति की उत्कंठा से, वह आत्म-निष्ठा जागृत हो जाती है जो वासनाओं के नाश के साथ स्वयंस्फूर्त रूप से अपने भीतर से ही प्रकट होती है।  -- The urge for knowing the Self is always there in the heart, but remains hidden under the innumerable desires for the non-self. When they have been destroyed by a strong urge for finding out the Self,  this latent urge manifests itself on its own. --

379, अनात्मचिन्तनं त्यक्त्वा

अनात्मचिन्तनं त्यक्त्वा कश्मलं दुःखकारणम्। चिन्तयात्मानमानन्दरूपं यन्मुक्तिकारणम् ।।३७९ -- अनात्म-चिन्तनं त्यक्त्वा कश्मलं दुःख-कारणम्। चिन्तय आत्मानं आनन्द-रूपं यत्-मुक्ति-कारणम्।।  -- अहितप्रद ग्लानि उत्पन्न करनेवाले अनात्म पदार्थों का चिन्तन करना छोड़कर अपनी आनन्दमय-स्वरूप आत्मा का चिन्तन करो जो मुक्ति का साधन है।  -- Giving up thinking about all the Non-self objects that cause misery only, think about the Self that is the freedom ultimate and  source of eternal bliss and peace. --

Verbatim (अधिष्ठान और आरोपण)

यह पोस्ट* संयोगजनित भूल से मेरे स्वाध्याय ब्लॉग में लिख दी गई, जिसे अब यथास्थान पुनः लिखा जा रहा है, यद्यपि इसे उस ब्लॉग में भी देखा जा सकता है। I had inadvertently posted this post* in my another (swaadhyaaya) blog, so now reposting here at its right place. * (406, अनन्यत्वमधिष्ठानादारोप्यस्य)  -- 406, अनन्यत्वमधिष्ठानादारोप्यस्य....  अनन्यत्वमधिष्ठानादारोप्यस्य निरीक्षितम्। पण्डितै रज्जुसर्पादौ विकल्पो भ्रान्तिजीवनः।। ४०६ -- अनन्यत्वं अधिष्ठानात् आरोप्यस्य निरीक्षितम्।  पण्डितैः रज्जु-सर्प-आदौ विकल्पः भ्रान्ति-जीवनः ।। -- जिसे अधिष्ठान पर आरोपित कर दिया जाता है,  उस आरोपित को अधिष्ठान से अनन्य मान लेना ही, आरोपित की सत्यता के आभास को उत्पन्न करता है।  पण्डितों के अनुसार, रज्जु में आरोपित सर्प को सत्य मान लेना ही वैकल्पिक सर्प के सत्य होने का भ्रम पैदा करता है।  -- Instead of seeing the very object itself, SEEING  an image superimposed upon the object causes the illusion that the image has its own reality, quite different and independent of the object (which gets hidden behind the ima

179, अध्यासदोषात्

अध्यासदोषात्पुरुषस्य संसृति- रध्यासबन्धस्त्वमुनैवकल्पितः । रजस्तमोदोषवतोऽविवेकिनो जन्मादिदुःखस्य निदानमेतत्।। १७९ -- अध्यास-दोषात् पुरुषस्य संसृतिः अध्यास-बन्धः तु अमुना एव कल्पितः।  रजः तमः दोषवतः अविवेकिनः जन्म-आदि दुःखस्य निदानं एतत्।।  -- अनात्म पदार्थों से आत्मा का तादात्म्य होना ही पुरुष की संसृति (का कारण) है। यह तादात्म्यरूपी बन्धन भी उसी के द्वारा कल्पित होता है। रजोगुण तथा तमोगुणसे युक्त अविवेकी जनों के दुःख का यही निदान (मूल कारण) है।  -- Identification of the Self with the Non-self is alone the cause of repeated births and rebirths of man. This bondage that is identification, is again but imagined only by him. Because of this identification, those who lack the discrimination and whose mind's are tainted with the rajas (the attribute / गुण) and tamas (the attribute /गुण) have to go through misery . This is the reason of their misery. -- 

14, अधिकारिणमाशास्ते

अधिकारिणमाशास्ते फलसिद्धिर्विशेषतः। उपाया देशकालाद्याः सन्त्यस्मिन्सहकारिणः।। १४ -- अधिकारिणं आशास्ते फलसिद्धिः विशेषतः।  उपायाः देश काल आद्या सन्ति अस्मिन् सहकारिणः।।  -- अधिकारी (पात्र -अनुबन्ध चतुष्टय के अनुसार -तैत्तिरीय उपनिषद् : शीक्षा वल्ली) को शिक्षा दी जाती है कि फलसिद्धि उसकी पात्रता से होती है, जबकि देश, काल इत्यादि भी इसमें सहयोग करते हैं।  -- In this endeavor (of knowing Brahman / Self), the qualified aspirant is welcome, but the place and times as such are of secondary importance, and are also helpful to a great extent. --

245, अथात आदेश इति

अथात आदेश इति श्रुतिः स्वयं निषेधति ब्रह्मणि कल्पितं द्वयम्।  श्रुतिप्रमाणानुगृहीतबोधात्तयोर्निरासः करणीय एव।। 245 -- अथ अतः आदेश: / आदेशे इति श्रुतिः स्वयं निषेधति ब्रह्मणि कल्पितं द्वयम् । श्रुतिप्रमाण-अनुगृहीतबोधात् तयोः निरासः करणीय एव।। -- (वेदाथात आदेशो) अब चूँकि श्रुति के आदेश के अनुसार ही ब्रह्म में द्वैत की कल्पना करना भी निषिद्ध है, इसलिए (यदि ऐसी कल्पना मन में है भी तो उस) ऐसे द्वैत का निरसन किया जाना ही आवश्यक कर्तव्य है।  (बृहदारण्यक उपनिषद् : अध्याय २, ब्राह्मण ३ तस्य हैतस्य पुरुषस्य रूपम्। यथा महारजनं वासो यथा पाण्ड्वाविकं यथेन्द्रगोपो यथाग्न्यर्चिर्यथा पुण्डरीकं यथा सकृद्विद्युत्त्ँ सकृद्विद्युत्तेव ह वा अस्य श्रीर्भवति य एवं वेदाथात  आदेशो नेति नेति न ह्येतस्मादिति नेत्यन्यत्परमस्त्यथ  नामधेय्ँ सत्यस्य सत्यमिति प्राणा वै सत्यं तेषामेष सत्यम् ।।६ -- The Veda exhorts : "द्वितीयाद्वै भयं" Meaning "the other is fear". This may bear resemblance with the famous phrase : "The other is hell!" But Veda elaborates the same principle : "Now is t

124, अथ ते सम्प्रवक्ष्यामि

अथ ते सम्प्रवक्ष्यामि स्वरूपं परमात्मनः।  यद्विज्ञाय नरो बन्धान्मुक्तः कैवल्यमश्नुते।। १२४ -- अथ ते सम्प्रवक्ष्यामि स्वरूपं परं-आत्मनः । यत् विज्ञाय नरः बन्धान् मुक्तः कैवल्यं अश्नुते ।। -- अब (मैं) तुमसे परात्म-परमात्मा के उस स्वरूप को कहूँगा जिसे जानकर मनुष्य बन्धनों से छूटकर कैवल्य को प्राप्त होता है।  -- Now I  shall enunciate before you the true nature of the Self-Supreme, realizing which one is freed from all bondage and attains the  "kaivalyam",  -the ultimate freedom. --

132, अत्रैव

अत्रैव सत्त्वात्मनि धीगुहाया- मव्याकृताकाश उरुप्रकाशः।  आकाश रविवत्प्रकाशते  स्वतेजसा विश्वमिदं प्रकाशयन्।। १३२ -- अत्र एव सत्त्व-आत्मनि धी-गुहायाम् अव्याकृत-आकाश उरु-प्रकाशः । आकाशे उच्चैः रविवत् प्रकाशते स्व-तेजसा विश्वं इदं प्रकाशयन्।।  -- यहीं इस (पाञ्चभौतिक स्थूल एवं सूक्ष्म) देह में बुद्धि-गुहा में अपञ्चीकृत-आकाश महाभूत में अपने तेज से युक्त प्रकाश विकीर्ण है। वह वैसा ही प्रकाशमान है जैसा कि लोक में सूर्य का प्रकाश पूरे संसार को प्रकाशित करता है। -- In the cosmic mind (the unmanifest, and the manifest subtle body) as well as in this physical body, there is a light of intellect, that shines by its own radiant light, just as the light of Sun, that illuminates the whole material world and the individual minds. --

94, अत्राभिमानादहमिति

अत्राभिमानादहमित्यहङ्कृतिः । स्वार्थानुसन्धानगुणेन चित्तम् ।। ९४ -- अत्र अभिमानात् अहं इति अहङ्कृतिः।  स्वार्थ-अनुसन्धान-गुणेन चित्तम्।।  -- प्रस्तुत श्लोक से पूर्व का श्लोक इस प्रकार से है : निगद्यतेऽन्तःकरण मनोधी- रहङ्कृतिश्चित्तमिति स्ववृत्तिभिः।  मनस्तु संकल्पविकल्पनादिभि- र्बुद्धिः पदार्थाध्यवसायधर्मतः।। ९२ -- निगद्यते अन्तःकरणं मनः-धीः-अहङ्कृतिः-चित्तं इति स्ववृत्तिभिः। मनः तु संकल्प-विकल्प-अनादिभिः बुद्धिः पदार्थ-अध्यवसाय-धर्मतः ।। अन्तःकरण के मन, बुद्धि, अहंकार तथा चित्त ये चार अवयव कहे जाते हैं जिनके आधार पर इसे अन्तःकरण-चतुष्टय भी कहते हैं।  इनमें से मन, अनादितः संकल्प-विकल्प की वृत्ति का नाम है।  बुद्धि विषयों से संबद्ध होनेवाली वृत्ति-विशेष है। ये विषय भी पुनः बाह्य अथवा आन्तरिक हो सकते हैं।  इसके बाद श्लोक ९४ में देहाभिमान को अहङ्कृतिः कहा गया है, जो इसी प्रकार स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर या कारण-शरीर से संबद्ध देहाभिमान के रूप में होता है। इसी अहङ्कृतिः से प्रेरित स्वार्थ की भावना का नाम चित्त है।  -- This verse referes to earlier one 93, which describes the four forms of co

161, अत्रात्मबुद्धिं त्यज

अत्रात्मबुद्धिं त्यज मूढबुद्धे  त्वङ्मांसमेदोऽस्थिपुरीषराशौ । सर्वात्मनि ब्रह्मणि निर्विकल्पे  कुरुष्व शान्तिं परमां भजस्व।। १६१ -- अत्र आत्मबुद्धिं त्यज मूढ-बुद्धे!  त्वक् मांस मेदः अस्थि पुरीष राशौ ।  सर्व-आत्मनि ब्रह्मणि निर्विकल्पे  कुरुष्व शान्तिं परमां भजस्व।। -- हे मूढ!  यह चर्म, मांस, मेद, अस्थि, और मल मूत्र की राशिरूपी  देह 'मैं हूँ', इस देह में -इस प्रकार की अपनी आत्मबुद्धि को त्याग दे, और निर्विकल्प सर्वात्मा रूपी ब्रह्म 'मैं हूँ', -इस प्रकार की बुद्धि से युक्त होकर परम शान्ति का भागी हो!  -- O foolish man!  Stop believing : 'I am' this body (which is but aggregate of skin, flesh, fat, bone, and excreta like stool and urine). Instead, stay firmly in the conviction, wisdom : 'I am' the Self Supreme, the Brahman Supreme and Absolute, that permeats and pervades all beings, and attain peace Supreme. --

137, अत्रानात्मन्यहमिति

अत्रानात्मन्यहमिति मतिर्बन्ध एषोऽस्यपुंसः प्राप्तोऽज्ञानाज्जननमरणक्लेशसंपातहेतुः । येनैवायं वपुरिदमसत्सत्यमित्यात्मबुद्ध्या  पुष्यत्युक्षत्यवति विषयैस्तन्तुभिः कोशकृद्वत्।। १३७ -- अत्र अनात्मनि अहं इति मतिः बन्धः एषः अस्य पुंसः  प्राप्तः अज्ञानात् जनन-मरण-क्लेश संपात-हेतुः। येन एव अयं वपुः इदं असत् सत्यं-इति आत्मबुद्ध्या  पुष्यति उक्षति अवति विषयैः तन्तुभिः कोशकृत्-वत्।। -- अज्ञान के कारण अनात्म को आत्मा की तरह ग्रहण करना ही (इस) मनुष्य का बन्धन है, और इसी से जन्म, मृत्यु तथा क्लेश उत्पन्न होते हैं। इसी (अज्ञान) से इस असद्रूप देह में आत्मबुद्धि रखते हुए, मनुष्य विषयों-रूपी तन्तुओं से इसका पोषण, इसका लालन-पालन, और इसकी रक्षा उसी प्रकार करता है, जैसे रेशम का कीड़ा अपने बंधन को स्वयं ही उत्पन्न कर उसका विस्तार और उसकी रक्षा करता है और, अंततः उसी में बंद होकर नष्ट हो जाता है। -- Because of ignorance one takes oneself as the body and this is the very bondage of the man. This bondage originated from ignorance results in the birth, death and other various miseries. One who takes this unreal (

382, अत्रात्मत्वं,

अत्रात्मत्वं दृढीकुर्वन्नहमादिषु संत्यजन्।  उदासीनतया तेषु तिष्ठेत् स्फुटघटादिवत्।। ३८२ -- अत्र आत्मत्वं दृढीकुर्वन् अहं आदिषु सं-त्यजन्।  उदासीनतया तेषु तिष्ठेत् स्फुट घट आदिवत्।।  -- (इस श्लोक को पूर्व के श्लोकों  ३७९, ३८० तथा ३८०  के सन्दर्भ में पढ़ना चाहिए।) स्वयंज्योति, अशेषसाक्षी को, जो विज्ञानमय-कोष में अजस्र (शाश्वत) रूप से विलासरत है, अच्छिन्नतया, प्रत्ययान्तरशून्य वृत्ति से अपने स्वरूप की तरह ध्यान देकर स्पष्टतः जानते हुए : अहंकार आदि को त्यागकर, उनके प्रति उदासीनता हो, मानों वे किसी फूटे हुए मृत्पिण्ड के टुकड़ों के तरह तुच्छ हों, अपने आपको दृढतापूर्वक आत्मा में रखना चाहिए । -- This verse is to be read with the earlier verses : 379, 380, 381 Where it has been said that the Blissful Self Who is the door to liberation, Who is Self-resplendent  eternal Witness only, ever sporting in the  knowledge-sheath, distinct from .... Having attention upon it, without breaking this flow of mind because of any other tendency or thought uninturrpted, noticing one's real nature ...  Ignor

375, अत्यन्तवैराग्यवतः

अत्यन्तवैराग्यवतः समाधिः समाहितस्यैव दृढप्रबोधः। प्रबुद्धतत्त्वस्य हि बन्धमुक्तिर्मुक्तात्मनो नित्यसुखानुभूतिः।। ३७५ -- अत्यन्त वैराग्यवतः समाधिः समाहितस्य एव दृढप्रबोधः।  प्रबुद्धतत्त्वस्य हि बन्धमुक्तिः मुक्त-आत्मनः नित्यसुखानुभूतिः।।  -- पूर्ण वैराग्य होने पर ही (निर्विकल्प) समाधि होती है, समाहित-चित्त (प्रशान्त) मन से ही स्थितप्रज्ञता होती है, स्थितप्रज्ञ होने से ही बन्धन से मुक्ति होती है, और नित्य सुख को साक्षात् जान लिया जाता है।  -- Through extreme dispassion one attains the state of peaceful mind and choicless awareness (samAdhi), such a state of mind is intelligence, such an the intelligent one is free from bondage and such a man realizes the bliss everlasting. --

444, अत्यन्त कामुकस्यापि

अत्यन्त कामुकस्यापि वृत्तिः कुण्ठति मातरि । तथैव ब्रह्मणि ज्ञाता पूर्णानन्दे मनीषिणः।। ४४४ -- अत्यन्त कामुकस्य अपि वृत्तिः कुण्ठति मातरि।  तथा एव ब्रह्मणि ज्ञाते पूर्णानन्दे मनीषिणः।।  -- जैसे अत्यन्त कामुक मनुष्य की भी कामप्रृवृत्ति माता की उपस्थिति में अनायास विलुप्त हो जाती है, उसी तरह जिस मनीषी ने ब्रह्म को जान लिया है, उसकी भी संपूर्ण कामनाएँ अनायास विलीन हो जाती हैं । -- Just as the lust in a voluptuous man vanishes in the presence of his mother, likewise all the worldly longings in the wise, who has realized the Brahman, vanish at once. --

193, अतोऽस्य जीवभावोऽपि

अतोऽस्य जीवभावोऽपि नित्या भवति संसृतिः।  न निवर्तेत तन्मोक्षः कथं मे श्रीगुरो वद ।। १९३ -- अतः अस्य जीवभावः अपि नित्या भवति संसृतिः।  न निवर्तेत तत्-मोक्षः कथं मे श्रीगुरो! वद।।  -- अतः (इस प्रकार से) इसका जीवभाव और संसार भी नित्य होता है। इनसे उसकी निवृत्ति नहीं हो सकती, तो फिर वह मोक्ष भी कैसे संभव होगा, हे गुरु!  कृपया मुझसे कहें। -- (इस श्लोक का तात्पर्य जानने के लिए इसे श्लोक संख्या १९२, १९४, १९५, १९६, तथा १९७ के साथ पढ़ना सहायक होगा।)  -- Therefore the sense of individuality (one having a different existence from, and other than the Supreme Self), -the ever-abiding state of the soul, could never come to end, then how one could attain that liberation?  O Lord!  Please say to me! -- [Thus stanza read along-with stanza 192, 194, 195, and  196, could be properly understood.] --   

8, अतो विमुक्त्यै

अतो विमुक्त्यै प्रयतेत विद्वान् संन्यस्तबाह्यार्थसुखस्पृहः सन्।  सन्तं महान्तं समुपेत्य देशिकं तेनोपदिष्टार्थ समाहितात्मा।। ८ -- अतः विमुक्त्यै प्रयतेत विद्वान् संन्यस्त बाह्य अर्थ-सुख-स्पृहः सन्। सन्तं महान्तं समुपेत्य देशिकं तेन उपदिष्ट-अर्थ समाहित- आत्मा ।। -- अतः विमुक्ति के लिए प्रयत्नरत विद्वान् को चाहिए कि सांसारिक वैभव आदि सुख की आशा त्यागकर ऐसे सन्त महात्मा की शरण जाए, जो इस क्षेत्र (विषय) का ज्ञाता हो, उससे उपदेश ग्रहण कर, उस अर्थ को जानकर, भली भाँति उस तत्व में समाहित-चित्त हो जाए।  -- Therefore the seeker who is trying to attain liberation, should renounce all worldly desires, should approach a competent teacher, who is kind, and knows well this truth, duly get from him his instructions and find peace and firmness of mind in this way. --

15, अतो विचारः कर्तव्यो

अतो विचारो कर्तव्यो जिज्ञासोरात्मवस्तुनः। समासाद्य दयासिन्धुं गुरुं ब्रह्मविदुत्तमम्।। १५ -- अतः विचारः कर्तव्यः जिज्ञासोः आत्मवस्तुनः।  समासाद्य दयासिन्धुं गुरुं ब्रह्मविद् उत्तमम्।।  -- अतः आत्मा के तत्व के जिज्ञासु का यह कर्तव्य है कि विचार अर्थात् आत्मविचार कैसे किया जाता है, इसे जानने हेतु उत्तम ब्रह्मविद् दयासिन्धु गुरु के समीप यथाविधि जाकर इस बारे में उनसे जिज्ञासा करे । -- So, the aspirant, eager and keen to know the Reality should approach the Teacher, who is verily the ocean of mercy, the one who abides ever in Brahman and pray him and follow his instructions with proper reasoning. -- 

296, अतोऽभिमानं त्यज

अतोऽभिमानं त्यज मांसपिण्डे पिण्डाभिमानिन्यपि बुद्धिकल्पिते।  कालत्रयाबाध्यमखण्डबोधं  ज्ञात्वा स्वमात्मानमुपैहि शान्तिम्।। २९६ -- अतः अभिमानं त्यज मांसपिण्डे पिण्ड-अभिमानिनि (अभिमानिन् सप्तमी एकवचन) अपि बुद्धिकल्पिते।  कालत्रय-अबाध्यं अखण्डबोधं ज्ञात्वा स्वं-आत्मानं उप-एहि शान्तिम्।।  -- अतएव, अपने आपके (जड देहरूपी) मांसपिण्ड होने के अभिमान को त्याग दो, इस तरह का यह अभिमान करनेवाला संकल्प भी बुद्धिकल्पित (अहं-प्रत्यय) है। आत्मा अर्थात् अपने आप को त्रिकालरहित, कालत्रय से अबाधित, अखण्ड-बोध की तरह जानकर, शान्ति के भागी हो जाओ।  -- Give up the notion that you are this body of flesh, and also give up the identification with the 'one',  the sense (of 'I'), that takes pride in assuming oneself this body. Know yourself beyond 'time' in all its 3 aspects, like the past,  the present and the future, or the waking state, the dream state and the deep dreamless state. In this way, know your Reality as the awareness only and thereby attain peace supreme. --

206, अतो नायं परात्मा

अतो नायं परमात्मा स्याद्विज्ञानमयशब्दभाक् । विकारित्वाज्जडत्वाच्च परिच्छिन्नत्वहेतुतः । दृश्यत्वाद्व्यभिचारित्वान्नानित्यो नित्य इष्यते।। २०६ -- अतः  न अयं परमात्मा स्यात् विज्ञानमयशब्दभाक्।  विकारित्वात् जडत्वात् च परिच्छिन्नत्व-हेतुतः।  दृश्यत्वात् व्यभिचारित्वात् न अनित्यः नित्य इष्यते ।। -- इसलिए जिसे विज्ञानमय कोष के नाम से जाना जाता है,  उसे परम आत्मा नहीं कहा जा सकता।  विज्ञानमय कोष सतत ही  विकारशील, जड, तथा परिच्छिन्न भी होता है, इसके दृश्य और व्यभिचारी तथा अनित्य होने से भी इसकी तुलना नित्य वस्तु  परम आत्मा से नहीं हो सकती।  (compare : विज्ञानमयकोशे विलसति अजस्रम्...)  -- The aforesaid "knowledge - sheath" / विज्ञानमय कोष, could not be the Supreme Self / परम आत्मन्,  because this "knowledge-sheat is subject to change, insentient, restricted within limits, an object of senses, and keeps appearing and disappearing. As such, could not have the real existence of its own, as is The Supreme Self. --   

आर्यैः

पिछले पोस्ट में इस शब्द का उल्लेख छूट गया था।  संस्कृत धातु 'ऋ' का प्रयोग गति और प्राप्ति के अर्थ में होता है। पर्याय से इसका अर्थ उन्नति, श्रेष्ठता आदि के लिए किया जाता है। ऋक्, ऋच्, और अर्क, अर्च्, अर्प, आदि इसी से व्युत्पन्न हो सकते हैं। इसी प्रकार आर्य भी ऐसा ही शब्द है।  इसका एक अर्थ चरित्रवान् और उदार भी होता है।  "आर्यैः" इसी पद का तृतीया बहुवचन रूप है।  --

अतीव सूक्ष्मं

अतीव सूक्ष्मं परमात्मतत्त्वं  न स्थूलदृष्ट्या प्रतिपत्तुमर्हति। समाधिनात्यन्त सुसूक्ष्मवृत्त्या  ज्ञातव्यमार्यैरतिशुद्धबुद्धिभिः ।। -- अतीव सूक्ष्मं परम-आत्मतत्त्वं न स्थूल-दृष्ट्या प्रतिपत्तुं अर्हति । समाधिना अत्यन्त सुसूक्ष्म-वृत्त्या ज्ञातव्यं आर्यैः अति शुद्ध बुद्धिभिः ।। -- परम आत्मतत्त्व अत्यन्त सूक्ष्म होने से उसे स्थूलदृष्टि अर्थात् इन्द्रियों, तर्क-वितर्क आदि से नहीं जाना जा सकता है।  न ही वह अनुभव का विषय है।  जब (निर्विकल्प) समाधि में विषयानुभव, विषय तथा विषय के अनुभवकर्ता के बीच का भेद विलीन हो जाता है, तो उस अत्यन्त सूक्ष्म ज्ञानवृत्ति से ही श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा उसे जाना जा सकता है। इस ज्ञानवृत्ति में ज्ञाता, ज्ञानी और उस ज्ञात तत्त्व के बीच का अभेद जान लिया जाता है जैसा कि : "ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति" से स्पष्ट है। -- The truth of the Supreme Self / आत्मन् / Brahman / ब्रह्मन् / is very subtle, and could not be known through senses, debate or sensory experiences as well. Only in the निर्विकल्प समाधि / choicless awareness, when the distinction between the obje

432, अतीताननुसन्धानं

अतीताननुसन्धानं भविष्यदविचारणम्। औदासीन्यमपि प्राप्तं जीवनमुक्तस्य लक्षणं।। ४३२ -- अतीत-अननुसन्धानं भविष्यत् अविचारणम्।  औदासीन्यं अपि प्राप्तं जीवनमुक्तस्य लक्षणम् ।। -- (बीते हुए) अतीत (स्मृति) के विषय में चिन्तन न करना, और (अनागत) भविष्य के बारे में कल्पनाएँ न करना, तथा दोनों से उदासीन हो जाना जीवन्मुक्त का लक्षण है। -- Thinking not about what happened in the past,  nor anticipating about what may happen in  the future, are the characteristics of a realized one. --   

138, अतस्मिंस्तद्बुद्धिः

अतस्मिंस्तद्बुद्धिः प्रभवति विमूढस्य तमसा विवेकाभावाद्वै स्फुरति भुजगे रज्जुधिषणा।  ततोऽनर्थव्रातो निपतति समादातुरधिक- स्ततो योऽसद्ग्राहः स हि भवति बन्धः शृणु सखे।। १३८ -- अ-तस्मिन्-तत्-बुद्धिः प्रभवति विमूढस्य तमसा  विवेक-अभावात् वै स्फुरति भुजगे रज्जु-धिषणा। ततः अनर्थ-व्रातः निपतति समादातुः अधिकः ततः यः असद्ग्राहः सः हि भवति बन्धः शृणु सखे।।  -- जो मोहित-बुद्धि है, अज्ञानवश जो वस्तुतः जैसा है, उसे उससे भिन्न किसी और ही रूप और प्रकार से मान बैठता है। विवेक के अभाव के ही कारण मनुष्य को रस्सी सर्प जैसी  प्रतीत होती है। इसके फलस्वरूप अनेक विपत्तियाँ और उपद्रव उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार से वस्तुओं का उनके अवास्तविक रूप में ग्रहण किया जाना ही बंधन है। -- One possessed by ignorance, mistakes things for something other than what they really are. Because of the lack of discrimination, one takes a rope as if it is a snake. When one has such a wrong notion about the world,  great calamities come upon him. So, O friend! It is, how looking the transience (feature) of things as their real nature

573, अतस्तौ मायया क्लृप्तौ

अतस्तौ मायया क्लृप्तौ बन्धमोक्षौ न चात्मनि । निष्कले निष्क्रिये शान्ते निरवद्ये निरञ्जने । अद्वितीये परे तत्त्वे  व्योमवत्कल्पना कुतः।। ५७३ -- अतः तौ मायया क्लृप्तौ बन्धमोक्षौ न च आत्मनि।  निष्कले निष्क्रिये शान्ते निरवद्ये निरञ्जने । अद्वितीये परे तत्त्वे व्योमवत् कल्पना कुतः।।  -- अतएव, बन्धन तथा मोक्ष माया से ही कल्पित हैं, आत्मा जो कि आकाशवत् तथा निष्कल, निष्क्रिय, शान्त, निरवद्य, निरञ्जन, एकमेव अद्वितीय है, उससे भिन्न किसी अन्य के होने की कल्पना भी कैसे हो सकती है? -- So, bondage and release are but imaginations in the Maya (माया) that exists not. In The Self (आत्मन्), Who is like Sky infinite limitless devoid of parts, without activity, calm, unimpeachable, taintless and One without a second, there is nothing else different and other than itself. So, how could there be even such imagination of bondage and release in this Reality Who is pure Self Only? --

366, अतः समाधत्स्व

अतः समाधत्स्व यतेन्द्रियः सन्  निरन्तरं शान्तमनाः प्रतीचि।  विध्वंसय ध्वान्तमनादविद्या- कृतं सदेकत्वविलोकनेन।। ३६६  -- अतः समाधत्स्व यतेन्द्रियः सन् निरन्तरं शान्तमनाः प्रतीचि।  विध्वंसय ध्वान्त-मनात् अविद्या-कृतं सत् एकत्व विलोकनेन।।  -- अतएव, (पिछले श्लोक ३६५ में जिसका उल्लेख किया गया है, उस निर्विकल्प) समाधि में स्थित होकर इन्द्रियों पर नियंत्रण करते हुए, निरन्तर शान्त मन से, विवेक से, एकमेव सत्वस्तु परमात्मा का अवलोकन करते हुए, अंधकारयुक्त मन में उत्पन्न हुई अविद्या का विध्वंस करो । -- Therefore, (as is suggested in the previous stanza 365), staying always in निर्विकल्प समाधि / choiceless state of awareness, having regulated and controlled the senses, be wakeful constantly with peaceful mind, destroy the darkness that assumes apparent existence because of the  ignorance (inattention) only, through keeping attention upon the Reality Unique, shining ever so incessantly (in the very heart itself)! -- --   

180, अतः प्राहुर्मनोऽविद्यां

अतः प्राहुर्मनोऽविद्यां पण्डितास्तत्वदर्शिनः।  येनैव भ्राम्यते विश्वं वायुनेवाभ्रमण्डलम्।। १८० -- अतः प्राहुः मनः अविद्यां पण्डिताः तत्वदर्शिनः।  येनैव भ्राम्यते विश्वं वायुना इव अभ्रमण्डलम्।।  -- अतः तत्वदर्शी ज्ञानियों ने मन को अविद्या कहा है, क्योंकि मन के द्वारा संसार वैसे ही भ्रमित होता रहता है जैसे कि वायु से मेघ सतत भ्रमण करते रहते हैं।  -- Therefore the wise who know the truth of mind call it "ignorance", because just as wind keeps moving the clouds all the time, ignorance also keeps the world moving always. --

327, अतः प्रमादान्न

अतः प्रमादान्न परोऽस्ति मृत्यु- र्विवेकिनो ब्रह्मविदः समाधौ।  समाहितः सिद्धिमुपैति सम्यक्  समाहितात्मा भव सावधानः।। ३२७ -- अतः प्रमादात् न परः अस्ति मृत्युः विवेकिनः ब्रह्मविदः समाधौ। समाहितः सिद्धिं उपैति सम्यक् समाहितात्मा भव सावधान।।  -- अतः, चूँकि प्रमाद मृत्यु ही है, विवेकयुक्त ब्रह्मविद को चाहिए कि समाधि (के अभ्यास) में प्रमाद न करे।  समाहित चित्तयुक्त ही सिद्धि को प्राप्त करता है, अतएव, हे समाहितात्मा! सावधान रहो! -- Inattention is verily death itself, the knower of Brahman should never ignore (the practice of) Meditation. The one whose mind is immersed in Meditation, attains the success. O one with mind absorbed in the Brahman! With all due care, keep your attention fixed there,  stay aware. --

235, अतः पृथङ्नास्ति

अतः पृथङ्नास्ति जगत्परात्मनः  पृथग्प्रतीतिस्तु मृषा गुणादिवत्।  आरोपितस्यास्ति किमर्थवत्ताऽ- धिष्ठानमभाति तथा भ्रमेण।। २३५ -- अतः पृथक् न अस्ति जगत् परात्मनः पृथक् प्रतीतिः तु मृषा गुणादिवत् । आरोपितस्य अस्ति किं अर्थवत्ता अधिष्ठानं आभाति तथा भ्रमेण।।  -- अतएव जगत् का अस्तित्व परमात्मा से पृथक् नहीं है। पृथकता की प्रतीति तो (परमात्मा पर) मिथ्या गुणों आदि (का आरोपण करने) से होती है। जिसे आरोपित किया जाता है, उसकी क्या सार्थकता है? (और उस प्रकार के आरोपण ही से) अधिष्ठान को ही भ्रम से उन गुणों आदि से युक्त मन लिया जाता है।  -- Hence the manifest existence is not different from the Supreme Self, and though imposing the false attributes upon It causes the illusion of It (as the phenomenal appearance), different from the Reality, The  Supreme Self is in no way affected. --     

237, अतः परं

अतः परं ब्रह्म सदद्वितीयं विशुद्धविज्ञानघनं निरञ्जनम्। प्रशान्तमाद्यन्तविहीनमक्रियं निरन्तरानन्दरसस्वरूपम्।। २३७ -- अतः परं ब्रह्म सत्-अद्वितीयं  विशुद्ध-विज्ञान-घनं निरञ्जनम्।  प्रशान्तं आदि-अन्त-विहीनं-अक्रियं  निरन्तर-आनन्द-रस-स्वरूपम् ।। -- (इस श्लोक का संबंध पिछले श्लोक के तारतम्य में है)  उस अपर ब्रह्म से भिन्न परब्रह्म है जो सत् मात्र, अद्वितीय, विशुद्ध, विज्ञानघन, निरञ्जन, प्रशान्त, तथा आदि, अन्त से रहित, विकारशून्य, निरन्तर आनन्द और रस स्वरूप है। -- (This stanza is in reference with to the earlier one, -236) In comparison to that manifest Brahman (अपर ब्रह्म -Reality), there is another superior and the higher one, -the one that is described as "परब्रह्म", Who is The One without a second, Unique, Essence of Reality, Essence of Intelligence, taintless, serene, devoid of beginning and end, beyond activity, the Essence of Bliss Absolute, ... --    

353, 423, अज्ञानहृदयग्रन्थेः

अज्ञानहृदयग्रन्थेर्निःशेषविलयस्तदा  समाधिनाऽविकल्पेन यदाऽद्वैतात्मदर्शनम् ।। ३५३ -- अज्ञान-हृदय-ग्रन्थेः निःशेष-विलयः तदा।  समाधिना अविकल्पेन यदा अद्वैत-आत्मदर्शनम् ।। -- अज्ञानहृदयग्रन्थेर्विनाशो यदशेषतः।  अनिच्छोर्विषयः किं नु प्रवृत्तेः कारणं स्वतः।। ४२३ -- अज्ञान-हृदय-ग्रन्थेः विनाशः यत् अशेषतः । अनिच्छोः विषयः किं नु प्रवृत्तेः कारणं स्वतः।।  -- हृदय में उत्पन्न हुई अज्ञान-ग्रन्थि तब पूर्णतः विलीन हो जाती है, जब निर्विकल्प समाधि के माध्यम से अपने अद्वय-आत्म-स्वरूप का निश्चय हो जाता है। इस प्रकार से इस हृदयग्रन्थि के विलीन हो जाने पर भी उसके कार्य उसकी इच्छा-अनिच्छा न होते हुए भी, अनायास प्रकृति के अनुसार होते रहते हैं।  -- भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः । क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिनदृष्टे परिवार।। ८ (मुण्डकोपनिषद् २/२) The knot of ignorance is completely destroyed, when the the Supreme Reality is realized as the only identity of one's very own. -- After the dissolution of this knot, all his actions happen prompted by प्रकृति only, though he has no more any desire

61, अज्ञानसर्पदष्टस्य

अज्ञानसर्पदष्टस्य ब्रह्मज्ञानौषधं विना।  किमु वेदैश्च शास्त्रैश्च किमु मंत्रैः किमौषधैः।। ६१ -- अज्ञान-सर्प-दष्टस्य ब्रह्म-ज्ञान औषधं विना।  किमु वेदैः च शास्त्रैः च किमु मंत्रैः किं औषधैः ।। -- जिसे अज्ञान रूपी सर्प ने दंश किया है, उसका वेदों अथवा शास्त्रैः, मंत्रों आदि से उपचार कैसे हो सकता है?  ब्रह्म ज्ञान-रूपी औषधि ही उसका एकमात्र उपचार है।  -- One who is bitten by the serpent (in the form) of ignorance of Brahman, could not be healed by means of the medicine (in the form) of Veda or other scriptures. Knowing the Supreme Brahman / Self is the only remedy that could remove the snake-poison and cure him. --

47, अज्ञानयोगात्

अज्ञानयोगात्परमात्मनस्तव  ह्यनात्मबन्धस्तत एव संसृतिः । तयोर्विवेकोदितबोधवह्नि- रज्ञानकार्यं प्रदहेत्समूलम् ।। ४७ -- अज्ञानयोगात् परमात्मनः तव  हि अनात्म-बन्धः ततः एव संसृतिः।  तयोः विवेक-उदित बोध-वह्निः अज्ञानकार्यं प्रदहेत् समूलम् ।। -- अज्ञान के कारण ही तुम्हारा परम वास्तविक आत्म-स्वरूप अनात्म से बंधनयुक्त प्रतीत हो रहा है। इस अज्ञान से ही संसृति अर्थात् जन्म-मृत्यु का सतत चक्र है। विवेकजनित ज्ञान का यही कार्य है कि अज्ञान और संसृति, दोनों ही बोध रूपी उस अग्नि में जलकर समूल नष्ट हो जाते हैं। -- Because of ignorance of your true nature,  Who is Supreme Reality / Brahman / आत्मन् ,  you , you are caught in this bondage of the cycle of repeated births and deaths. This is the very bondage with the non-self / अनात्मन् . The fire of awakening kindled by the discrimination burns up the ignorance and the bondage as well. -- --

146, अज्ञानमूलो

अज्ञानमूलोऽयमनात्मबन्धो नैसर्गिकोऽनादिरनन्त इरितः। जन्माप्ययव्याधिजरादिदुःख- प्रवाहपातं जनयत्यमुष्यः।। १४६ -- अज्ञानमूलः अयं अनात्म-बंधः नैसर्गिकः अनादिः अनन्तः ईरितः। जन्म अप्यय व्याधि जरा आदि दुःख-प्रवाह-पातं जनयति अमुष्यः।। -- यह अज्ञान ही (आत्मा के) अनात्म से बंधन का मूल कारण है। इसे नैसर्गिक, अनादि, अनन्त कहा गया है। जो जन्म, मृत्यु, रोग, बुढ़ापा, आदि दुःखों के उस प्रवाह की उत्पत्ति का कारण है, जिसमें गिरकर आत्मा दुःख से पीड़ित होती है।  -- This bondage and attachment with the non-self (अनात्म) is born of ignorance. It is said : "This ignorance is natural, without a beginning and has no end". This very ignorance is the very cause of birth,  death, disease and decrepitude (old age). This ignorance pushes one to fall into the flow of all miseries of life. --

116, अज्ञानमालस्य

अज्ञानमालस्यजडत्वनिद्रा- प्रमादमूढत्वमुखास्तमोगुणाः। एतैः प्रयुक्तो नहि वेत्ति किंचि- न्निद्रालुवत्स्तम्भवदेव तिष्ठति।।११६ -- अज्ञानम् आलस्य जडत्व निद्रा  प्रमाद मूढत्व-मुखाः तमोगुणाः। एतैः प्रयुक्तः नहि वेत्ति किञ्चित् निद्रालुवत् स्तम्भवत् एव तिष्ठति ।। -- अज्ञान, आलस्य, जडत्व, निद्रा, प्रमाद आदि मूढता के सभी रूप तमोगुण के प्रकार हैं। इनसे मोहित बुद्धियुक्त कुछ नहीं जानता, निद्रालु जैसा काठ के लट्ठे जैसा ही पड़ा रहता है।  -- Ignorance, laziness, dullness, sleep, inattention, stupidity, etc. are attributes of inertia. One whose mind is possessed by these, remains like a log of wood (lives the life in vain). --

459, अजो नित्यः

अजो नित्यः शाश्वत इति ब्रूते श्रुतिरमोघवाक्।  तदात्मना तिष्ठतोऽस्य कुतः प्रारब्धकल्पना।। ४५९ -- अजः नित्यः शाश्वतः इति ब्रूते श्रुतिः अमोघ-वाक्।  तत् आत्मना तिष्ठतः अस्य कुतः प्रारब्ध-कल्पना  ।। -- श्रुति की अमोघ उक्ति : न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वाऽभविता वा न भूयः।  अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।। २० (गीता अध्याय २) तथा : न जायते म्रियते वा विपश्चिन्नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित्।  अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।। १८ (कठोपनिषद् १/२) के द्वारा कहा गया है कि आत्मा जन्मरहित, नित्य, शाश्वत है।  जो अपनी इस आत्मा में भली प्रकार से अवस्थित है, उसके संबंध में 'प्रारब्ध' की कल्पना भी कैसे की जा सकती है!  -- According to "श्रुति", आत्मा / Self is beyond birth and death, eternal,  ever-present Reality.  One who has attained this Reality, how destiny is applicable to him? --  

410, अजरममरमस्ताभाववस्तुस्वरूपम्

अजरममरमस्ताभाववस्तुस्वरूपम्  स्तिमितसलिलराशिप्रख्यमाख्याविहीनम्।  शमितगुणविकारं शाश्वतं शान्तमेकम्  हृदि कलयति विद्वान् ब्रह्म पूर्णं समाधौ।। ४१० -- अजरं अमरं अस्त-अभाव वस्तु-स्वरूपम् स्तिमित सलिल राशि प्रख्यं आख्याविहीनम् । शमितगुणविकारं शाश्वतं शान्तं एकम्  हृदि कलयति विद्वान् ब्रह्म पूर्णं समाधौ।।  -- जरामृत्युरहित नित्य अस्तरहित*, सदा अभावरहित*, वस्तुरूपमात्र, तरंगरहित, स्तब्ध जलराशि के समान जिसका वर्णन अवर्णनीय कहकर किया जाता है, जिसके गुणविकार नितान्त शान्त हैं, उस शाश्वत् शान्त एक सद्वस्तु को  पूर्ण समाधि में हृदय में स्थित जानकर आत्मवित् .... -- * नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।  उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।।१६  (गीता - अध्याय २) -- Realizing the undecaying, deathless, Supreme Reality (Brahman) like the undisturbed waters without a ripple, in one's own heart, the wise in transcendent state of mind, attains Brahman, Who is bliss only, eternally devoid of merits and demerits... --

417, अखण्डानन्दमात्मानम्

अखण्डानन्दमात्मानं विज्ञायस्वस्वरूपतः।  किमिच्छन् कस्य वा हेतोर्देहं पुष्णाति तत्त्ववित् ।।४१७ -- अखण्ड-आनन्दम् आत्मानं विज्ञाय स्वस्वरूपतः।  किं इच्छन् कस्य वा हेतोः देहं पुष्णाति तत्त्ववित् ।। -- अपने आपको अखण्ड, आनन्द-स्वरूप आत्मा की तरह जान लेने पर, कोई फिर, किस कामना या प्रयोजन की पूर्ति के लिए देह के पोषण की चिन्ता करेगा? -- Having realized one's true indivisible, blissful, formless being, why one would care anymore for feeding and nourishing the transient body (which is after all, ultimately to die one day.) --

525, अखण्डबोधात्मनि

अखण्डबोधात्मनि निर्विकल्पे विकल्पनं व्योम्निपुरप्रकल्पम्।  तद्वद्वयानन्दमयात्मना सदा शान्तिं परामेत्य भजस्व मौनम्।।  -- अखण्ड-बोध-आत्मनि निर्विकल्पे  विकल्पनं व्योम्नि-पुर-प्रकल्पम् । तत्-अद्वय-आनन्दमय-आत्मना सदा शान्तिं पराम् एत्य भजस्व मौनम्।।  -- निर्विकल्प अखण्ड बोधरूपी आत्मा पर, विकल्प से कोई रूप आरोपित करना, आकाश पर किसी नगर की कल्पना आरोपित करने की तरह है। उस अद्वय आनन्दमय आत्मा (को जानकर) में अवस्थित रहते हुए, उस परम शान्ति के भागी हो जाओ। -- Imposing dualistic ideas upon That Supreme Reality, (आत्मन्) of the nature of infinite knowing, is like imagining a city in the pure spotless sky. Therefore knowing That Supreme Reality, as the only Unique Principle, share that immense peace of Brahman within your very heart. --  

139, अखण्ड-नित्य

अखण्डनित्याद्वयबोधशक्त्या  स्फुरन्तमात्मानमनन्तवैभवम् । समावृणोत्यावृतिशक्तिरेषा तमोमयी राहुरिवार्कबिम्बम्।। १३९ -- अखण्ड-नित्य-अद्वय-बोध-शक्त्या स्फुरन्तम्-आत्मानं-अनन्त-वैभवम् । सं-आवृणोति आवृति-शक्तिः एषा तमोमयी राहु-इव-अर्क-बिम्बम् -- जैसे राहु सूर्य के बिम्ब को ग्रस लेता है, (माया की) यह तमोमयी (प्रमादरूपी) आवरण-शक्ति भी उसी तरह हृदय में नित्य विद्यमान और स्फुरित होते रहनेवाले अनन्तवैभवयुक्त-अद्वय आत्मा की स्वाभाविक बोध-शक्ति को आवरित कर लेती है। श्रीदक्षिणामूर्ति स्तोत्रम् : "राहुग्रस्त दिवाकरेन्दुसदृशो मायासमाच्छादनात् सन्मात्रः... " -- Just as the Dragon's head (राहु) eclipses the self-effulgent Sun, this veiling power of ignorance (माया) too covers up the spontaneous and inherent awareness of the indivisible, in-finite, eternal, Self (आत्मन्). --  

490, अकर्ता

अकर्ताहमभोक्ताहमऽविकारोऽहमक्रियः। शुद्धबोधस्वरूपोऽहं केवलोऽहं सदाशिवः।।४९०।। -- अकर्ता अहं अभोक्ता अहं अविकारः अहं अक्रिय। शुद्धबोध स्वरूपः अहं केवलः अहं सदाशिवः।। -- परम सद्वस्तु आत्मा अकर्ता, अभोक्ता, अविकारी और अक्रिय, शुद्धबोध स्वरूप, केवल सदाशिव है -- I, -The Supreme Reality, is not the one,: "Who" does, experiences, I,  -The Supreme Reality is changeless (immutable) and beyond all activity,  I,  -The Supreme Reality is Pure Knowledge, I, -The Supreme Reality is Absolute and ever so identical with the Auspicious. --

63, 64, अकृत्वा

अकृत्वा दृश्यविलयमज्ञात्वा तत्वमात्मनः।  ब्रह्मशब्दैः कुतो मुक्तिरुक्तिमात्रफलैर्नृणाम्।। ६३ -- अकृत्वा दृश्य-विलयं अज्ञात्वा तत्त्वं आत्मनः। ब्रह्म-शब्दैः कुतः मुक्तिः उक्तिमात्रफलैः नृणाम्।।  -- दृश्य का (दृक् में) विलय हुए बिना, आत्मा के तत्त्व को जाने बिना "ब्रह्म" शब्द का केवल उच्चारण करने मात्र से, मुक्ति कैसे हो सकती है? -- How, without the dissolution of the objective Reality into the subjective, (and the subjective into the Supreme), only by uttering the word "Brahman", the liberation could be attained? -- अकृत्वा शत्रुसंहारमगत्वाखिलभूश्रियम्।  राजाहमिति शब्दान्नो राजा भवितुमर्हति।। ६४ -- अकृत्वा शत्रुसंहारं अगत्वा अखिलभूश्रियम्।  राजा अहं इति शब्दात् नो राजा भवितुं अर्हति ।। -- शत्रुओं का संहार किए बिना, संपूर्ण पृथ्वी के साम्राज्य को प्राप्त किए बिना अपने आप को राजा कह देने से ही तो कोई राजा नहीं हो सकता! -- Without winning over the enemies, without  capturing the wealth of the whole earth, only by calling oneself 'king', one doesn't becomes a