338, अन्तर्बहिः स्वं
अन्तर्बहिः स्वं स्थिरजङ्गमेषु ज्ञात्वाऽऽत्मनाधारतया विलोक्य। त्यक्ताखिलोपाधिरखण्डरूपः पूर्णात्मना यः स्थित एष मुक्तः।। ३३८ -- अन्तःबहिः स्वं स्थिर-जङ्गमेषु ज्ञात्वा आत्मना आधारतया विलोक्य। त्यक्त-अखिल-उपाधिः-अखण्डरूपः पूर्ण-आत्मना यः स्थितः एषः मुक्तः ।। -- अपने आपको भीतर बाहर, चर-अचर, भूतमात्र में विद्यमान एकमात्र अधिष्ठानरूपी अखण्ड आत्मा की तरह देखते हुए, समस्त उपाधियों को त्यागकर, जो पुरुष पूर्ण-आत्मा की तरह स्थित है वह यह पुरुष मुक्त है। -- One who looks oneself as the only Self that is present in all moving and unmoving, sentient and insentient objects without distinction and as the support and substratum of them, One who relinquishing all adjuncts, ever abides there, is indeed free (Realized). --