235, अतः पृथङ्नास्ति
अतः पृथङ्नास्ति जगत्परात्मनः
पृथग्प्रतीतिस्तु मृषा गुणादिवत्।
आरोपितस्यास्ति किमर्थवत्ताऽ-
धिष्ठानमभाति तथा भ्रमेण।। २३५
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अतः पृथक् न अस्ति जगत् परात्मनः पृथक् प्रतीतिः तु मृषा गुणादिवत् । आरोपितस्य अस्ति किं अर्थवत्ता अधिष्ठानं आभाति तथा भ्रमेण।।
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अतएव जगत् का अस्तित्व परमात्मा से पृथक् नहीं है। पृथकता की प्रतीति तो (परमात्मा पर) मिथ्या गुणों आदि (का आरोपण करने) से होती है। जिसे आरोपित किया जाता है, उसकी क्या सार्थकता है? (और उस प्रकार के आरोपण ही से) अधिष्ठान को ही भ्रम से उन गुणों आदि से युक्त मन लिया जाता है।
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Hence the manifest existence is not different from the Supreme Self, and though imposing the false attributes upon It causes the illusion of It (as the phenomenal appearance), different from the Reality, The Supreme Self is in no way affected.
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