245, अथात आदेश इति

अथात आदेश इति श्रुतिः स्वयं निषेधति ब्रह्मणि कल्पितं द्वयम्। 

श्रुतिप्रमाणानुगृहीतबोधात्तयोर्निरासः करणीय एव।। 245

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अथ अतः आदेश: / आदेशे इति श्रुतिः स्वयं निषेधति ब्रह्मणि कल्पितं द्वयम् । श्रुतिप्रमाण-अनुगृहीतबोधात् तयोः निरासः करणीय एव।।

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(वेदाथात आदेशो) अब चूँकि श्रुति के आदेश के अनुसार ही ब्रह्म में द्वैत की कल्पना करना भी निषिद्ध है, इसलिए (यदि ऐसी कल्पना मन में है भी तो उस) ऐसे द्वैत का निरसन किया जाना ही आवश्यक कर्तव्य है। 

(बृहदारण्यक उपनिषद् :

अध्याय २, ब्राह्मण ३

तस्य हैतस्य पुरुषस्य रूपम्। यथा महारजनं वासो यथा पाण्ड्वाविकं यथेन्द्रगोपो यथाग्न्यर्चिर्यथा पुण्डरीकं यथा सकृद्विद्युत्त्ँ सकृद्विद्युत्तेव ह वा अस्य श्रीर्भवति य एवं वेदाथात  आदेशो नेति नेति न ह्येतस्मादिति नेत्यन्यत्परमस्त्यथ  नामधेय्ँ सत्यस्य सत्यमिति प्राणा वै सत्यं तेषामेष सत्यम् ।।६

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The Veda exhorts :

"द्वितीयाद्वै भयं"

Meaning "the other is fear".

This may bear resemblance with the famous phrase :

"The other is hell!"

But Veda elaborates the same principle :

"Now is then the injunction :

(अथात आदेश) repudiating duality imagined in the Brahman. One must carefully eliminate those two superimpositions,-namely, 

veil and distraction,

 - the two powers ascribed to "MAyA"

By means of realization of Brahman.

[The reference is to Brihadaranyaka Upnishad 2-3-6, as cited above]

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