161, अत्रात्मबुद्धिं त्यज

अत्रात्मबुद्धिं त्यज मूढबुद्धे 
त्वङ्मांसमेदोऽस्थिपुरीषराशौ ।
सर्वात्मनि ब्रह्मणि निर्विकल्पे 
कुरुष्व शान्तिं परमां भजस्व।। १६१
--
अत्र आत्मबुद्धिं त्यज मूढ-बुद्धे! 
त्वक् मांस मेदः अस्थि पुरीष राशौ । 
सर्व-आत्मनि ब्रह्मणि निर्विकल्पे 
कुरुष्व शान्तिं परमां भजस्व।।
--
हे मूढ!  यह चर्म, मांस, मेद, अस्थि, और मल मूत्र की राशिरूपी  देह 'मैं हूँ', इस देह में -इस प्रकार की अपनी आत्मबुद्धि को त्याग दे, और निर्विकल्प सर्वात्मा रूपी ब्रह्म 'मैं हूँ', -इस प्रकार की बुद्धि से युक्त होकर परम शान्ति का भागी हो! 
--
O foolish man!  Stop believing :
'I am' this body (which is but aggregate of skin, flesh, fat, bone, and excreta like stool and urine).
Instead, stay firmly in the conviction, wisdom :
'I am' the Self Supreme, the Brahman Supreme and Absolute, that permeats and pervades all beings, and attain peace Supreme.
--

Comments

Popular posts from this blog

मोक्षस्य कांक्षा

13, अर्थस्य निश्चयो

349, अयोऽग्नियोगादिव