353, 423, अज्ञानहृदयग्रन्थेः
अज्ञानहृदयग्रन्थेर्निःशेषविलयस्तदा
समाधिनाऽविकल्पेन यदाऽद्वैतात्मदर्शनम् ।। ३५३
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अज्ञान-हृदय-ग्रन्थेः निःशेष-विलयः तदा।
समाधिना अविकल्पेन यदा अद्वैत-आत्मदर्शनम् ।।
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अज्ञानहृदयग्रन्थेर्विनाशो यदशेषतः।
अनिच्छोर्विषयः किं नु प्रवृत्तेः कारणं स्वतः।। ४२३
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अज्ञान-हृदय-ग्रन्थेः विनाशः यत् अशेषतः ।
अनिच्छोः विषयः किं नु प्रवृत्तेः कारणं स्वतः।।
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हृदय में उत्पन्न हुई अज्ञान-ग्रन्थि तब पूर्णतः विलीन हो जाती है, जब निर्विकल्प समाधि के माध्यम से अपने अद्वय-आत्म-स्वरूप का निश्चय हो जाता है।
इस प्रकार से इस हृदयग्रन्थि के विलीन हो जाने पर भी उसके कार्य उसकी इच्छा-अनिच्छा न होते हुए भी, अनायास प्रकृति के अनुसार होते रहते हैं।
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भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिनदृष्टे परिवार।। ८
(मुण्डकोपनिषद् २/२)
The knot of ignorance is completely destroyed,
when the the Supreme Reality is realized as the only identity of one's very own.
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After the dissolution of this knot, all his actions happen prompted by प्रकृति only, though he has no more any desire of his own.
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