417, अखण्डानन्दमात्मानम्

अखण्डानन्दमात्मानं विज्ञायस्वस्वरूपतः। 

किमिच्छन् कस्य वा हेतोर्देहं पुष्णाति तत्त्ववित् ।।४१७

--

अखण्ड-आनन्दम् आत्मानं विज्ञाय स्वस्वरूपतः। 

किं इच्छन् कस्य वा हेतोः देहं पुष्णाति तत्त्ववित् ।।

--

अपने आपको अखण्ड, आनन्द-स्वरूप आत्मा की तरह जान लेने पर, कोई फिर, किस कामना या प्रयोजन की पूर्ति के लिए देह के पोषण की चिन्ता करेगा?

--

Having realized one's true indivisible, blissful, formless being, why one would care anymore for feeding and nourishing the transient body (which is after all, ultimately to die one day.)

--

Comments

Popular posts from this blog

मोक्षस्य कांक्षा

13, अर्थस्य निश्चयो

349, अयोऽग्नियोगादिव