137, अत्रानात्मन्यहमिति
अत्रानात्मन्यहमिति मतिर्बन्ध एषोऽस्यपुंसः
प्राप्तोऽज्ञानाज्जननमरणक्लेशसंपातहेतुः ।
येनैवायं वपुरिदमसत्सत्यमित्यात्मबुद्ध्या
पुष्यत्युक्षत्यवति विषयैस्तन्तुभिः कोशकृद्वत्।। १३७
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अत्र अनात्मनि अहं इति मतिः बन्धः एषः अस्य पुंसः
प्राप्तः अज्ञानात् जनन-मरण-क्लेश संपात-हेतुः।
येन एव अयं वपुः इदं असत् सत्यं-इति आत्मबुद्ध्या
पुष्यति उक्षति अवति विषयैः तन्तुभिः कोशकृत्-वत्।।
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अज्ञान के कारण अनात्म को आत्मा की तरह ग्रहण करना ही (इस) मनुष्य का बन्धन है, और इसी से जन्म, मृत्यु तथा क्लेश उत्पन्न होते हैं। इसी (अज्ञान) से इस असद्रूप देह में आत्मबुद्धि रखते हुए, मनुष्य विषयों-रूपी तन्तुओं से इसका पोषण, इसका लालन-पालन, और इसकी रक्षा उसी प्रकार करता है, जैसे रेशम का कीड़ा अपने बंधन को स्वयं ही उत्पन्न कर उसका विस्तार और उसकी रक्षा करता है और, अंततः उसी में बंद होकर नष्ट हो जाता है।
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Because of ignorance one takes oneself as the body and this is the very bondage of the man. This bondage originated from ignorance results in the birth, death and other various miseries.
One who takes this unreal (non-self) body for the real (self), -nourishes, maintains, protects because of ignorance is in bondage like the silk-worm that creates its thread and is trapped in its own bondage.
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