274, अन्तःश्रिता
अन्तःश्रितानन्तदुरन्तवासना-
धूलिविलिप्ता परमात्मवासना।
प्रज्ञातिसंघर्षणतो विशुद्धा
प्रतीयते चन्दनगन्धवत् स्फुटम्।। २७४
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अन्तःश्रिता अनन्त-दुरन्त-वासना-
धूलि-विलिप्ता परमात्म-वासना ।
प्रज्ञातिसंघर्षणतः विशुद्धा
प्रतीयते चन्दनगन्धवत् स्फुटम्।।
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हृदयान्तर में स्थित परमात्मा को प्राप्त करने की अभिलाषा मानों अनन्त दुरन्त धूलिलिप्त वासना से आच्छादित होती है। इस स्थिति में परमात्मा को जानने (प्रज्ञाति / प्रज्ञान) की उत्कंठा अन्तःकरण में चन्दन की सुगंध जैसी प्रतीत होती है ।
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The urge to see God remains covered, hidden under the dust of endless past impressions in the mind of the seeker. Still, when this urge becomes strong enough, feels like the fragrance of sandal that permeats and purifies his mind.
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