139, अखण्ड-नित्य
अखण्डनित्याद्वयबोधशक्त्या
स्फुरन्तमात्मानमनन्तवैभवम् ।
समावृणोत्यावृतिशक्तिरेषा
तमोमयी राहुरिवार्कबिम्बम्।। १३९
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अखण्ड-नित्य-अद्वय-बोध-शक्त्या स्फुरन्तम्-आत्मानं-अनन्त-वैभवम् ।
सं-आवृणोति आवृति-शक्तिः एषा तमोमयी राहु-इव-अर्क-बिम्बम्
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जैसे राहु सूर्य के बिम्ब को ग्रस लेता है, (माया की) यह तमोमयी (प्रमादरूपी) आवरण-शक्ति भी उसी तरह हृदय में नित्य विद्यमान और स्फुरित होते रहनेवाले अनन्तवैभवयुक्त-अद्वय आत्मा की स्वाभाविक बोध-शक्ति को आवरित कर लेती है।
श्रीदक्षिणामूर्ति स्तोत्रम् :
"राहुग्रस्त दिवाकरेन्दुसदृशो मायासमाच्छादनात्
सन्मात्रः... "
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Just as the Dragon's head (राहु) eclipses the self-effulgent Sun, this veiling power of ignorance (माया) too covers up the spontaneous and inherent awareness of the indivisible, in-finite, eternal, Self (आत्मन्).
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