138, अतस्मिंस्तद्बुद्धिः
अतस्मिंस्तद्बुद्धिः प्रभवति विमूढस्य तमसा
विवेकाभावाद्वै स्फुरति भुजगे रज्जुधिषणा।
ततोऽनर्थव्रातो निपतति समादातुरधिक-
स्ततो योऽसद्ग्राहः स हि भवति बन्धः शृणु सखे।। १३८
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अ-तस्मिन्-तत्-बुद्धिः प्रभवति विमूढस्य तमसा
विवेक-अभावात् वै स्फुरति भुजगे रज्जु-धिषणा।
ततः अनर्थ-व्रातः निपतति समादातुः अधिकः
ततः यः असद्ग्राहः सः हि भवति बन्धः शृणु सखे।।
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जो मोहित-बुद्धि है, अज्ञानवश जो वस्तुतः जैसा है, उसे उससे भिन्न किसी और ही रूप और प्रकार से मान बैठता है। विवेक के अभाव के ही कारण मनुष्य को रस्सी सर्प जैसी प्रतीत होती है। इसके फलस्वरूप अनेक विपत्तियाँ और उपद्रव उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार से वस्तुओं का उनके अवास्तविक रूप में ग्रहण किया जाना ही बंधन है।
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One possessed by ignorance, mistakes things for something other than what they really are. Because of the lack of discrimination, one takes a rope as if it is a snake. When one has such a wrong notion about the world, great calamities come upon him. So, O friend! It is, how looking the transience (feature) of things as their real nature becomes the bondage.
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