63, 64, अकृत्वा

अकृत्वा दृश्यविलयमज्ञात्वा तत्वमात्मनः। 

ब्रह्मशब्दैः कुतो मुक्तिरुक्तिमात्रफलैर्नृणाम्।। ६३

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अकृत्वा दृश्य-विलयं अज्ञात्वा तत्त्वं आत्मनः।

ब्रह्म-शब्दैः कुतः मुक्तिः उक्तिमात्रफलैः नृणाम्।। 

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दृश्य का (दृक् में) विलय हुए बिना, आत्मा के तत्त्व को जाने बिना "ब्रह्म" शब्द का केवल उच्चारण करने मात्र से, मुक्ति कैसे हो सकती है?

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How, without the dissolution of the objective Reality into the subjective, (and the subjective into the Supreme), only by uttering the word "Brahman", the liberation could be attained?

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अकृत्वा शत्रुसंहारमगत्वाखिलभूश्रियम्। 

राजाहमिति शब्दान्नो राजा भवितुमर्हति।। ६४

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अकृत्वा शत्रुसंहारं अगत्वा अखिलभूश्रियम्। 

राजा अहं इति शब्दात् नो राजा भवितुं अर्हति ।।

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शत्रुओं का संहार किए बिना, संपूर्ण पृथ्वी के साम्राज्य को प्राप्त किए बिना अपने आप को राजा कह देने से ही तो कोई राजा नहीं हो सकता!

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Without winning over the enemies, without  capturing the wealth of the whole earth, only by calling oneself 'king', one doesn't becomes a king. 

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