185, अनुव्रजत्

अनुव्रजच्चित्प्रतिबिम्बशक्तिर्विज्ञानसंघः प्रकृतेर्विकारः ।

ज्ञानक्रियावानहमित्यजस्रं देहेन्द्रियादिष्वभिमन्यते भृशम्।। १८५

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अनुव्रजत् चित्-प्रतिबिम्ब-शक्तिः 

विज्ञानसंघः प्रकृतेः विकारः। 

ज्ञान-क्रियावान्-अहं इति अजस्रं 

देह-इन्द्रिय-आदिषु अभिमन्यते भृशम्।।

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इस विज्ञानमय-कोष का, जो सदा ही,  प्रतिबिम्बित चित् शक्ति से युक्त प्रकृति के विकार से उत्पन्न हुआ विज्ञान-समुच्चय मात्र है, अनुसरण करता हुआ ज्ञान तथा क्रिया शक्ति से युक्त अहंकार अनादिकाल से, अपने आपको देह तथा इन्द्रियों में स्थित हुआ मान बैठता है।

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The knowledge-sheath which is a modification of prakriti (nature), endowed with the light of Cit (aware-ness), assumes itself the timeless ever-present ego, comprising of all Intellect and action, thus identifies itself with the body and senses ....

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