47, अज्ञानयोगात्
अज्ञानयोगात्परमात्मनस्तव
ह्यनात्मबन्धस्तत एव संसृतिः ।
तयोर्विवेकोदितबोधवह्नि-
रज्ञानकार्यं प्रदहेत्समूलम् ।। ४७
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अज्ञानयोगात् परमात्मनः तव
हि अनात्म-बन्धः ततः एव संसृतिः।
तयोः विवेक-उदित बोध-वह्निः
अज्ञानकार्यं प्रदहेत् समूलम् ।।
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अज्ञान के कारण ही तुम्हारा परम वास्तविक आत्म-स्वरूप अनात्म से बंधनयुक्त प्रतीत हो रहा है। इस अज्ञान से ही संसृति अर्थात् जन्म-मृत्यु का सतत चक्र है। विवेकजनित ज्ञान का यही कार्य है कि अज्ञान और संसृति, दोनों ही बोध रूपी उस अग्नि में जलकर समूल नष्ट हो जाते हैं।
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Because of ignorance of your true nature,
Who is Supreme Reality / Brahman / आत्मन् ,
you , you are caught in this bondage of the cycle of repeated births and deaths.
This is the very bondage with the non-self / अनात्मन् .
The fire of awakening kindled by the discrimination burns up the ignorance and the bondage as well.
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