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Showing posts from April, 2021

38, अयं स्वभावः

अयं स्वभाव स्वत एव यत्परश्रमापनोदप्रवणं महात्मनाम्। सुधांशुरेष स्वयमर्ककर्कशप्रभाभितप्तामवति क्षितिं किल।। ३८ -- अयं स्वभावः स्वतः एव यत् पर श्रम आपनोद प्रवणं  महात्मनाम्।  सुधांशुः एषः स्वयं अर्क-कर्कश प्रभाभितप्तां अवति क्षितिं किल।। -- यह तो महात्मा पुरुषों की स्वाभाविक करुणा ही होती है कि वे स्वयं ही आगे रहकर दूसरों के कष्टों का वैसे ही परिहार कर देते  हैं जैसे कि चन्द्रमा, सूर्य की प्रखर गर्मी से तप्त धरती पर अपनी शीतल किरणें फैलाकर उसकी रक्षा करता है।  -- Just as the moon radiates its cool soothing rays upon the earth and as a result, the earth scorched by the harsh sun is relieved of its burning heat, It is in the very nature of great men that they on their own, try to remove troubles of others. --

7, अमृतस्य

अमृतस्य नाशास्ति वित्तेनेत्येव हि श्रुतिः।  ब्रवीति कर्मणो मुक्तेरहेतुत्वं स्फुटं यतः।। ७ -- अमृतत्वस्य न आशा अस्ति वित्तेन इति एव हि श्रुतिः। ब्रवीति कर्मणः मुक्तेः अहेतुत्वं स्फुटं यतः।।  -- श्रुति के अनुसार, धन-संपत्ति आदि से अमर होने की आशा करना व्यर्थ है। साथ ही कर्म (के माध्यम) से भी मुक्ति नहीं प्राप्त की जा सकती यह भी स्पष्ट ही है, (क्योंकि कर्ममात्र नई कर्म-श्रंखला का कारण बन जाता है, और जब तक यह श्रृंखला बनी रहती है, तब तक मुक्ति कैसे हो सकती है)!  -- Veda instructs that through wealth, there is no hope of attaining immortality.  And, the action too does not help in attaining the liberation (because action results in an unending cycle of further action and the subsequent fruit, and as long as this cycle exists,  so how there could be liberation?) --

115, अभावना वा,

अभावना वा विपरीतभावनाऽसंभावनाविप्रतिपत्तिरस्याः । संसर्गयुक्तं न विमुञ्चति ध्रुवं विक्षेपशक्तिः क्षपयत्यजस्रम्।। ११५ -- अभावना वा विपरीतभावना-असंभावना विप्रतिपत्तिः अस्याः।  संसर्गयुक्तं न विमुञ्चति ध्रुवं विक्षेपशक्तिः क्षपयति अजस्रम्।।  -- किसी भी विशिष्ट भावना से रहित हो, या विपरीत भावना से युक्त हो, या विश्वास या संशय से युक्त या रहित न होने पर भी, जो (विषयों से) बँधा हुआ है, उसे (अविद्या रूपी) विक्षेपशक्ति सदैव और सतत पीड़ा देती रहती है।  -- Having a concept, or not having at all any of such a concept, having a contrary belief or a doubt, there is never release from this power of distraction for one who is attached (to sense-objects and the sense-experience). --

544, अपिकुर्वन्नकुर्वाणश्च

अपिकुर्वन्नकुर्वाणश्चाभोक्ता फलभोग्यपि।  शरीर्यप्यशरीर्येष परिच्छिन्नोऽपि सर्वगः।। ५४४ -- अपि कुर्वन् अकुर्वाणः च अभोक्ता फलभोगी अपि।  शरीरी अपि अशरीरी एषः परिच्छिन्नः अपि सर्वगः।।  -- कर्म करते या न करते हुए भी, फलों का भोग करते या न करते हुए भी, शरीर के होते हुए या न रहने पर भी, इस प्रकार शरीर आदि से परिच्छिन्न दिखाई देते हुए भी वह सर्वत्र, सर्वव्यापी है। -- Apparently looking engaged in, or devoid of any activity, experiencing the fruits of action like  enjoyment and pain, having a physical body or even without having such a body, He is omni-present.... --

101, अन्धत्वमन्दत्व

अन्धत्वमन्दत्वपटुत्वधर्माः सौगुण्यवैगुण्यवशाद्धि चक्षुषः। बाधिर्यमूकत्वमुखास्तथैव श्रोत्रादिधर्मा न तु वेत्तुरात्मनः।। १०१ -- अन्धत्व-मन्दत्व-पटुत्व-धर्माः सौगुण्य-वैगुण्य-वशात्-हि चक्षुषः । बाधिर्य-मूकत्व-मुखाः तथा एव  श्रोतृ-आदि-धर्माः न तु वेत्तुः आत्मनः।। -- अन्धता, मन्दता, पटुता आदि नेत्र-धर्म, नेत्रों के गुणों अथवा दोषों के अनुसार हुआ करते हैं। इसी प्रकार ठीक से सुनाई न देना, बोल पाने में असमर्थ होना आदि भी क्रमशः कानों और मुख के गुणों या दोषों के अनुसार हुआ करते हैं। ये सब धर्म, गुण-दोष,  इन्द्रियों आदि के होते हैं, न कि (इनके माध्यम से विषयों आदि को) जाननेवाले आत्मा के।  -- Blindness, weakness, strength of sight, depend upon the defects, fitness, strength of the eyes. Similarly, the deafness, dumbness respectively, depend upon the defects, fitness, strength of the senses like the ear and the mouth, and are not of the Self, Who knows (the objects through all these senses). --

372, अन्तस्त्यागो बहिस्त्यागो

अन्तस्त्यागो बहिस्त्यागो विरक्तस्यैव युज्यते। त्यजत्यन्तर्बहिःसङ्गं विरक्तस्तु मुमुक्षया।। ३७२ -- अन्तः त्यागः बहिः त्यागः विरक्तस्य एव युज्यते।  त्यजति अन्तः बहिः सङ्गं विरक्तः तु मुमुक्षया।। --केवल कोई विरक्त पुरुष ही मन तथा इन्द्रियों से विषयों को त्याग सकता है। केवल कोई विरक्त ही मुमुक्षा से युक्त होने पर इस प्रकार से मन तथा इन्द्रियों के विषयों को अनायास त्याग पाता है।  -- Only a man who has no attachment to the pleasures and pains of sense-objects can renounce them.  Only such a one with a deep urge for liberation can thus relinquish all sense objects from mind  effortlessly. --