282, अनादानविसर्गाभ्यां

अनादानविसर्गाभ्यामीषन्नास्ति क्रिया मुनेः। 
तदेकनिष्ठया नित्यं स्वाध्यासापनयं कुरु ।। २८२
--
अनादान-विसर्गाभ्यां ईषत् नास्ति क्रिया मुनेः। 
तत् एकनिष्ठया नित्यं स्व-अध्यास-अपनयं  कुरु ।।
--
मुनि न तो ग्रहण करता है, न त्याग करता है । चूँकि त्याग या ग्रहण ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों / मन आदि का कार्य है, और मुनि कर्तृत्व-भाव से रहित होने से किसी भी कार्य का कर्ता, भोक्ता आदि नहीं होता। इस प्रकार से एकनिष्ठ होकर सदैव अध्यासमात्र का निरसन करो।
--
The sage neither accepts nor rejects and has nothing to do with the actions performed by the senses and sense organs or organs of action. Prompted by this and keeping this in mind, always remove all identification with all those actions whether performed by mind or by the  physical organs.
--

Comments

Popular posts from this blog

मोक्षस्य कांक्षा

531, अयमात्मा नित्यसिद्धः

13, अर्थस्य निश्चयो