206, अतो नायं परात्मा

अतो नायं परमात्मा स्याद्विज्ञानमयशब्दभाक् ।

विकारित्वाज्जडत्वाच्च परिच्छिन्नत्वहेतुतः ।

दृश्यत्वाद्व्यभिचारित्वान्नानित्यो नित्य इष्यते।। २०६

--

अतः  न अयं परमात्मा स्यात् विज्ञानमयशब्दभाक्। 

विकारित्वात् जडत्वात् च परिच्छिन्नत्व-हेतुतः। 

दृश्यत्वात् व्यभिचारित्वात् न अनित्यः नित्य इष्यते ।।

--

इसलिए जिसे विज्ञानमय कोष के नाम से जाना जाता है,  उसे परम आत्मा नहीं कहा जा सकता।  विज्ञानमय कोष सतत ही  विकारशील, जड, तथा परिच्छिन्न भी होता है, इसके दृश्य और व्यभिचारी तथा अनित्य होने से भी इसकी तुलना नित्य वस्तु  परम आत्मा से नहीं हो सकती। 

(compare : विज्ञानमयकोशे विलसति अजस्रम्...) 

--

The aforesaid "knowledge - sheath" / विज्ञानमय कोष, could not be the Supreme Self / परम आत्मन्,  because this "knowledge-sheat is subject to change, insentient, restricted within limits, an object of senses, and keeps appearing and disappearing. As such, could not have the real existence of its own, as is The Supreme Self.

-- 


 

Comments

Popular posts from this blog

मोक्षस्य कांक्षा

13, अर्थस्य निश्चयो

349, अयोऽग्नियोगादिव