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मोक्षस्य कांक्षा

81. मोक्षस्य कांक्षा...  -- मोक्षस्य कांक्षा यदि वै तवास्ति त्यजातिदूराद्विषयान्विषं यथा।। पीयूषवत्तोषदयाक्षमार्जव- प्रशान्तिदान्तीर्भजनित्यमादरात्।। -- अन्वय : मोक्षस्य कांक्षा यदि वै तव अस्ति त्यज अतिदूरात् विषयान् विषवत् यथा। पीयूषवत् तोष दया क्षमा आर्जव प्रशान्ति दान्तीः भज नित्यमादरात् ।। अर्थ  : यदि तुममें मोक्षप्राप्ति करने की तीव्र इच्छा है, तो विषयमात्र को इस तरह से अत्यन्त दूर से ही त्याग दो मानों वे विष हों। और संतोष, दया, क्षमा, चित्त की निर्मलता और सरलता, स्वाभाविक शान्ति, इन्द्रियों का दमन आदि का आदरपूर्वक अभ्यास करो। -- Meaning : Janaka said : If you sincerely long for the attainment of the liberation, keep the sense-objects away from the mind like the poison, learn those virtues like the contentment, compassion, forgiveness, the clarity and simplicity of the  mind, calm, and the  control of the senses. -- बहुत समय से किसी कारण से इस ब्लॉग में लिखना नहीं हो पा रहा था। अब मनोयान ब्लॉग में अष्टावक्र गीता लिख रहा हूँ, तो अकस्मात् इस पर ध्यान गया, कि अष्टावक्र गीता की प्रस्त

562, अविनाशी वा अरे!

अविनाशी वा अरेऽयमात्मेति श्रुतिरात्मनः ।। प्रब्रवीत्यविनाशित्वं विनश्यत्सु विकारिषु ।।५६२।। -- अन्वय : अविनाशी वा अरे अयं आत्मा इति श्रुतिः आत्मनः।। प्रब्रवीति अविनाशित्वं विनश्यत्सु विकारिषु ।। अर्थ : आत्मा का वर्णन करते हुए बृहदारण्यक उपनिषद्, श्रुति 4/14 में कहा गया है कि अनित्य विकारशील और विनाशवान वस्तुओं में केवल एकमात्र यह आत्मा ही अविनाशी अर्थात् नाशरहित है। -- Brihadaranyaka Upnishad 4/14 points out : Amidst all perishable and changing things,  This Self alone is the immortal and immutable Reality. ***

55, अविद्याकामकर्मादि

अविद्याकामकर्मादिपाशबन्धं विमोचितुम् ।। कः शक्नुयाद्विनात्मानं कल्पकोटिशतैरपि ।।५५।। -- अन्वय : अविद्या-काम-कर्मादि-पाशबन्धं विमोचितुम् । कः शक्नुयात् विना आत्मानं कल्पकोटि-शतैः अपि ।। -- अर्थ : अपने अविद्या, काम तथा कर्म इत्यादि के बन्धन से मुक्त होने के लिए, अपने स्वयं को ही यत्न करना होता है। अपने स्वयं से कोई अन्य, कोटि कोटि जन्मों में भी हमें इन बन्धनों से कैसे मुक्त करा सकता है?  -- Ignorance of the Self, desire, good, bad, noble or evil deeds are the bondage. One oneself needs to make effort to free oneself from the bondage. Who other than himself could ever help and free him? ***

59, अविज्ञाते परे तत्वे

अविज्ञाते परे तत्वे शास्त्राधीतिस्तु निष्फला ।। विज्ञातेऽपि परे तत्वे शास्त्राधीतिस्तु निष्फला ।।५९।। -- अन्वय :  अविज्ञाते परे तत्वे शास्त्र अधीतिः तु निष्फला । विज्ञाते अपि परे तत्वे शास्त्र अधीतिः तु निष्फला ।। अर्थ : परम तत्त्व, आत्म-तत्त्व, परमात्म-तत्त्व अर्थात् परमात्मा के तत्त्व को जान लिये जाने पर शास्त्र का अध्ययन व्यर्थ होता है, और यदि परम तत्व, आत्म-तत्व, परमात्म-तत्व को जब तक नहीं जान लिया जाता है, तो इसी तरह से शास्त्र का अध्ययन व्यर्थ ही होता है। तात्पर्य यह, कि उस तत्व को जिसे परम तत्त्व, ठीक से जान लेना ही अधिक महत्वपूर्ण है, न कि शास्त्र का अध्ययन । -- As long as the Supreme Reality / Brahman / Self / Truth is not known, the study of scriptures is  meaning-less, and in the same way, so long as the Supreme Reality / Brahman / Self / Truth is not known, the study of scriptures is meaning-less. The purport is : Attainment of the Supreme Reality / Brahman / Self / Truth is the only important thing that alone matters. So why scriptures? Because the scriptures may kindle a

13, अर्थस्य निश्चयो

अर्थस्य निश्चयो दृष्टो विचारेण हितोक्तितः ।। न स्नानेन न दानेन न प्राणायाम-शतेन वा ।।१३।। -- अन्वय : अर्थस्य निश्चयः दृष्टः विचारेण हितोक्तितः । न स्नानेन न दानेन न प्राणायाम-शतेन वा ।। अर्थ : सत्य का निश्चय तो हितकारी उक्ति के श्रवण, सत्य के सम्यक् अन्वेषण और उसके प्रत्यक्ष दर्शन से ही होता है, न कि स्नान, दान अथवा सैंकड़ों प्राणायाम आदि का अनुष्ठान किए जाने से। -- The truth is revealed / realized only through the right kind of the enquiry into (the nature of) the truth, and the conviction arrived at, by following the instructions given by the  realized / wise, and not by performing the various sacred deeds like bathing, giving out donations etc. to the needy, or practicing a hundred breath-exercises. ***  

349, अयोऽग्नियोगादिव

अयोग्नियोगादिव सत्समन्वया न्मात्रादिरूपेण विजृम्भते धीः ।। तत्कार्यमेतद्वितयं यतो मृषा दृष्टं भ्रमस्वप्नमनोरथेषु ।।३४९।। -- अन्वय : अयः अग्नि-योगात् इव सत्-समन्वयात् मात्रा-आदि-रूपेण विजृम्भते धीः । तत् कार्यं एतत् द्वितयं यतः मृषा दृष्टं भ्रम-स्वप्न-मनोरथेषु ।। अर्थ : जैसे लोहा अग्नि के संयोग से तप्त होकर चिंगारी आदि की तरह प्रतीत होता हुआ अग्नि के रूप में प्रतीत होता है, वैसे ही बुद्धि भी सत् (चैतन्य) के संयोग से प्रकटतः दृश्य तत्वों और पदार्थों की तरह दिखलाई देती है। इस प्रकार से बुद्धि का भिन्न भिन्न प्रकार का दो तरह का कार्य ही भ्रम, स्वप्न और मनोरथों की उत्पत्ति का कारण है।  इसी कारण, बुद्धि क्रमशः ज्ञेय (दृश्य) और ज्ञाता (दृक्) के रूप में विभाजित हुई जान पड़ती है। ज्ञाता चैतन्य पुरुष तत्व होता है, जबकि ज्ञेय जड प्रकृति मात्र होती है। -- Iron, when put into fire, turns red hot and is seen as sparks.The consciousness associated with the intellect, in the same way appears as if split into the knower and the known. Thus a superficial knower (the subject) and the known (the object) a

531, अयमात्मा नित्यसिद्धः

अयमात्मा नित्यसिद्धः प्रमाणे सति भासते ।। न देशं नापि वा कालं न शुद्धिं वाप्यपेक्षते ।।५३१।। -- अन्वय : अयं आत्मा नित्यसिद्धः प्रमाणे सति भासते । न देशं न अपि वा कालं न शुद्धिं वा अपेक्षते ।। अर्थ : यह आत्मा नित्य ही स्वतःसिद्ध ही है। किसी भी वस्तु या तथ्य की सत्यता सिद्ध करने के लिए, इसका कोई प्रमाण दिया जाना आवश्यक होता है, किन्तु आत्मा, अर्थात् अपने स्वयं के होने का प्रमाण दिए जाने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता। अपने होने का यह तथ्य यद्यपि हर प्राणी को अनायास ही ज्ञात होता है, किन्तु अपनी आत्मा का यथार्थ तत्व या रहस्य क्या है, इसे जानने के लिए जिज्ञासा, प्रयास, अन्वेषण किया जाना अपेक्षित होता है।  अपने आपका यह तत्व यद्यपि किसी प्रमाण के अनुसार सतत ही बदलता हुआ सा प्रतीत होता है, किन्तु यदि वह इस प्रकार से परिवर्तित हो सकता होता, तो किसी प्रमाण के होने या न होने का प्रश्न ही कहाँ उठता! इसलिए प्रमाण होने पर ही मन तत्काल ही आत्मा, या इस तत्व को समय, स्थान और स्थिति के अनुसार पुनः पुनः परिभाषित कर लेता है, जबकि अपना आत्म-तत्व इस प्रकार की किसी परिभाषा से नितान्त अप्रभावित रहता हुआ ही अप