562, अविनाशी वा अरे!

अविनाशी वा अरेऽयमात्मेति श्रुतिरात्मनः ।।

प्रब्रवीत्यविनाशित्वं विनश्यत्सु विकारिषु ।।५६२।।

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अन्वय :

अविनाशी वा अरे अयं आत्मा इति श्रुतिः आत्मनः।। प्रब्रवीति अविनाशित्वं विनश्यत्सु विकारिषु ।।

अर्थ :

आत्मा का वर्णन करते हुए बृहदारण्यक उपनिषद्, श्रुति 4/14 में कहा गया है कि अनित्य विकारशील और विनाशवान वस्तुओं में केवल एकमात्र यह आत्मा ही अविनाशी अर्थात् नाशरहित है।

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Brihadaranyaka Upnishad 4/14 points out :

Amidst all perishable and changing things, 

This Self alone is the immortal and immutable Reality.

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