531, अयमात्मा नित्यसिद्धः

अयमात्मा नित्यसिद्धः प्रमाणे सति भासते ।।

न देशं नापि वा कालं न शुद्धिं वाप्यपेक्षते ।।५३१।।

--

अन्वय :

अयं आत्मा नित्यसिद्धः प्रमाणे सति भासते ।

न देशं न अपि वा कालं न शुद्धिं वा अपेक्षते ।।

अर्थ :

यह आत्मा नित्य ही स्वतःसिद्ध ही है। किसी भी वस्तु या तथ्य की सत्यता सिद्ध करने के लिए, इसका कोई प्रमाण दिया जाना आवश्यक होता है, किन्तु आत्मा, अर्थात् अपने स्वयं के होने का प्रमाण दिए जाने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता। अपने होने का यह तथ्य यद्यपि हर प्राणी को अनायास ही ज्ञात होता है, किन्तु अपनी आत्मा का यथार्थ तत्व या रहस्य क्या है, इसे जानने के लिए जिज्ञासा, प्रयास, अन्वेषण किया जाना अपेक्षित होता है। 

अपने आपका यह तत्व यद्यपि किसी प्रमाण के अनुसार सतत ही बदलता हुआ सा प्रतीत होता है, किन्तु यदि वह इस प्रकार से परिवर्तित हो सकता होता, तो किसी प्रमाण के होने या न होने का प्रश्न ही कहाँ उठता! इसलिए प्रमाण होने पर ही मन तत्काल ही आत्मा, या इस तत्व को समय, स्थान और स्थिति के अनुसार पुनः पुनः परिभाषित कर लेता है, जबकि अपना आत्म-तत्व इस प्रकार की किसी परिभाषा से नितान्त अप्रभावित रहता हुआ ही अपने अविकारी स्वरूप में ही सतत, अविचलित स्थित होता है। 

इस अविकारी आत्म-तत्व का आभास / साक्षात् का भी प्रमाण दिया और प्राप्त किया जा सकता है, और तब वस्तुतः इसका क्या स्वरूप है, यह स्पष्ट हो जाता है। 

इस प्रकार से आत्म-साक्षात्कार न तो किसी स्थान-विशेष पर, न किसी समय-विशेष पर, और न ही शरीर, इन्द्रियों, मन-बुद्धि, या चित्त आदि की शुद्धता आदि पर निर्भर है।

--

This Self is ever so evident in all circumstances, either as the 'self', or as the immutable truth / Reality, that it never needs to be verified by any proof what-so-ever.

To grasp this true essence and meaning of this Self, it is required that there is eagerness, keen urge, and careful attention is given to the same.

***



Comments

Popular posts from this blog

63, 64, अकृत्वा

490, अकर्ता

मोक्षस्य कांक्षा