349, अयोऽग्नियोगादिव

अयोग्नियोगादिव सत्समन्वया

न्मात्रादिरूपेण विजृम्भते धीः ।।

तत्कार्यमेतद्वितयं यतो मृषा

दृष्टं भ्रमस्वप्नमनोरथेषु ।।३४९।।

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अन्वय :

अयः अग्नि-योगात् इव सत्-समन्वयात् मात्रा-आदि-रूपेण विजृम्भते धीः । तत् कार्यं एतत् द्वितयं यतः मृषा दृष्टं भ्रम-स्वप्न-मनोरथेषु ।।

अर्थ : जैसे लोहा अग्नि के संयोग से तप्त होकर चिंगारी आदि की तरह प्रतीत होता हुआ अग्नि के रूप में प्रतीत होता है, वैसे ही बुद्धि भी सत् (चैतन्य) के संयोग से प्रकटतः दृश्य तत्वों और पदार्थों की तरह दिखलाई देती है। इस प्रकार से बुद्धि का भिन्न भिन्न प्रकार का दो तरह का कार्य ही भ्रम, स्वप्न और मनोरथों की उत्पत्ति का कारण है। 

इसी कारण, बुद्धि क्रमशः ज्ञेय (दृश्य) और ज्ञाता (दृक्) के रूप में विभाजित हुई जान पड़ती है। ज्ञाता चैतन्य पुरुष तत्व होता है, जबकि ज्ञेय जड प्रकृति मात्र होती है।

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Iron, when put into fire, turns red hot and is seen as sparks.The consciousness associated with the intellect, in the same way appears as if split into the knower and the known.

Thus a superficial knower (the subject) and the known (the object) apart from one-another own their independent existence.

This duality that causes all and different kinds of delusion, dream and desires etc., is verily the  ignorance and its work only.

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