मोक्षस्य कांक्षा
81. मोक्षस्य कांक्षा...
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मोक्षस्य कांक्षा यदि वै तवास्ति
त्यजातिदूराद्विषयान्विषं यथा।।
पीयूषवत्तोषदयाक्षमार्जव-
प्रशान्तिदान्तीर्भजनित्यमादरात्।।
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अन्वय :
मोक्षस्य कांक्षा यदि वै तव अस्ति त्यज अतिदूरात् विषयान् विषवत् यथा। पीयूषवत् तोष दया क्षमा आर्जव प्रशान्ति दान्तीः भज नित्यमादरात् ।।
अर्थ :
यदि तुममें मोक्षप्राप्ति करने की तीव्र इच्छा है, तो विषयमात्र को इस तरह से अत्यन्त दूर से ही त्याग दो मानों वे विष हों। और संतोष, दया, क्षमा, चित्त की निर्मलता और सरलता, स्वाभाविक शान्ति, इन्द्रियों का दमन आदि का आदरपूर्वक अभ्यास करो।
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Meaning :
Janaka said :
If you sincerely long for the attainment of the liberation, keep the sense-objects away from the mind like the poison, learn those virtues like the contentment, compassion, forgiveness, the clarity and simplicity of the mind, calm, and the control of the senses.
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बहुत समय से किसी कारण से इस ब्लॉग में लिखना नहीं हो पा रहा था। अब मनोयान ब्लॉग में अष्टावक्र गीता लिख रहा हूँ, तो अकस्मात् इस पर ध्यान गया, कि अष्टावक्र गीता की प्रस्तावना में ही राजा जनक द्वारा मुनि अष्टावक्र से जिज्ञासा किए जाने पर वे इस प्रकार से इसका उत्तर देते हैं :
जनक उवाच --
कथं ज्ञानमवाप्नोति कथं मुक्तिर्भविष्यति।।
वैराग्यं च कथं प्राप्तमेतद्ब्रूहि मम प्रभो।।
इसके पश्चात् ग्रन्थ का आरंभ प्रथम अध्याय १ के इस श्लोक से होता है :
अष्टावक्र उवाच --
मुक्तिमिच्छसि चेत्तात विषतयान्विषयत्यज।।
क्षमार्जव-दया-तोष-सत्यं पीयूषवद्भज।।१।।
विवेकचूडामणि के ऊपर उद्धृत श्लोक ८२ से अष्टावक्र गीता के ऊपर उद्धृत श्लोक के शब्दों की समानता से मुझे लगा कि क्या यह केवल संयोग मात्र है!
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