544, अपिकुर्वन्नकुर्वाणश्च
अपिकुर्वन्नकुर्वाणश्चाभोक्ता फलभोग्यपि।
शरीर्यप्यशरीर्येष परिच्छिन्नोऽपि सर्वगः।। ५४४
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अपि कुर्वन् अकुर्वाणः च अभोक्ता फलभोगी अपि।
शरीरी अपि अशरीरी एषः परिच्छिन्नः अपि सर्वगः।।
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कर्म करते या न करते हुए भी, फलों का भोग करते या न करते हुए भी, शरीर के होते हुए या न रहने पर भी, इस प्रकार शरीर आदि से परिच्छिन्न दिखाई देते हुए भी वह सर्वत्र, सर्वव्यापी है।
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Apparently looking engaged in, or devoid of any activity, experiencing the fruits of action like enjoyment and pain, having a physical body or even without having such a body, He is omni-present....
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